जिस जातिगत जनगणना से नेहरू-इंदिरा ने मुंह मोड़ा, उसे राहुल गांधी ने कैसे बनाया सियासी हथियार?
पीएम मोदी, राहुल गांधी, पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी और पंडित नेहरू
Caste Census: बुधवार को हुई कैबिनेट बैठक में मोदी सरकार ने ऐलान किया कि अगली जनगणना में जातियों की गिनती भी होगी. आजादी के बाद पहली बार देश में ऐसा होने जा रहा है. लेकिन इस फैसले ने सियासी जंग छेड़ दी है, जिसमें कांग्रेस राहुल गांधी को इसका हीरो बता रही है, तो बीजेपी इसे मोदी सरकार का सामाजिक न्याय का मास्टरस्ट्रोक कह रही है. लेकिन सवाल यह है कि जिस जातिगत जनगणना से पंडित नेहरू और इंदिरा गांधी ने दूरी बना रखी थी, उसका पोस्टर ब्वॉय राहुल गांधी कैसे बन गए? आइये सबकुछ आसान भाषा में विस्तार से समझते हैं.
जातिगत जनगणना पर इतना बवाल क्यों?
जनगणना तो आपने सुना ही होगा. हर 10 साल में देश की आबादी, शिक्षा, रोजगार जैसी चीजों को गिना जाता है. लेकिन जातिगत जनगणना में हर जाति के लोगों की संख्या भी दर्ज की जाती है. इससे पता चलता है कि देश में कौन-सी जाति कितनी है और उनके पास संसाधन, नौकरियां या अवसर कितने हैं. ये जानकारी सामाजिक न्याय के लिए अहम है, क्योंकि इसके आधार पर आरक्षण और सरकारी योजनाओं को और बेहतर किया जा सकता है. लेकिन इस मुद्दे पर दशकों से सियासत गर्म रही है, क्योंकि कुछ लोग इसे समाज को बांटने वाला मानते हैं, तो कुछ इसे सामाजिक बराबरी का हथियार.
नेहरू से इंदिरा तक…कांग्रेस का पुराना स्टैंड
आजादी के बाद से कांग्रेस ने जातिगत जनगणना से दूरी बनाए रखी. 1947 से 1964 तक पंडित जवाहरलाल नेहरू प्रधानमंत्री रहे, लेकिन कभी उन्होंने इसका जिक्र नहीं किया. उनका मानना था कि जाति गिनने से समाज में बंटवारा होगा. 1951 और 1961 की जनगणना में जातियों की गिनती नहीं हुई. इंदिरा गांधी (1966-1984, बीच में 3 साल छोड़कर) और राजीव गांधी के समय भी यही रुख रहा. उस समय कांग्रेस ने ब्रिटिश राज की नीतियों को समाज तोड़ने वाला बताकर जातिगत जनगणना को ठुकरा दिया था.
हालांकि, ब्रिटिश काल में 1881 से 1931 तक हर जनगणना में जातियों को गिना जाता था. लेकिन 1941 में धार्मिक आधार पर गिनती शुरू हुई, जब मुस्लिम लीग और हिंदू महासभा ने अपनी-अपनी कम्युनिटी से धर्म लिखवाने को कहा. आजादी के बाद नेहरू ने इसे खत्म कर दिया, ताकि देश में सामाजिक एकता बनी रहे.
राहुल गांधी का ‘गेम चेंजर’ दांव
अब आते हैं राहुल गांधी पर, जिन्होंने इस मुद्दे को अपनी सियासी पारी का टर्निंग पॉइंट बना लिया. 2014 में नरेंद्र मोदी के सत्ता में आने के बाद कांग्रेस का सियासी ग्राफ गिरता चला गया. ‘मंडल पॉलिटिक्स’ की वजह से लालू यादव, मुलायम सिंह जैसे नेताओं ने कांग्रेस का वोटबैंक छीन लिया था. बीजेपी ने भी बाकी बचे सियासी मैदान पर कब्जा जमा लिया. ऐसे में राहुल गांधी ने जातिगत जनगणना को अपना ‘ब्रह्मास्त्र’ बनाया.
राहुल ने सड़क से संसद तक इस मुद्दे को उठाया. उन्होंने 2011 की जनगणना के जाति डेटा को सार्वजनिक करने की मांग की, जो यूपीए सरकार के समय जुटाया गया था, लेकिन 2014 में सरकार बदलने के बाद दबा रहा. राहुल ने इसे सामाजिक न्याय का हथियार बनाया और एक नारा दिया, “जिसकी जितनी संख्या भारी, उसकी उतनी हिस्सेदारी.” उन्होंने 50% आरक्षण की सीमा हटाने की भी वकालत की. कांग्रेस के उदयपुर, रायपुर, और गुजरात के सम्मेलनों में राहुल ने इस मुद्दे को जोर-शोर से उठाया. कर्नाटक और तेलंगाना में कांग्रेस सरकारों ने जातिगत सर्वे कराए, जिसने राहुल की इस मुहिम को और हवा दी.
देखते ही देखते राहुल गांधी इस मुद्दे पर विपक्ष के सबसे बड़े चेहरे बन गए. यहां तक कि लालू, मुलायम जैसे दिग्गज भी पीछे छूट गए. कांग्रेस के इतिहास में पहली बार कोई नेता इतनी शिद्दत से जातिगत जनगणना की बात कर रहा था.
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मोदी सरकार का यू-टर्न और क्रेडिट की जंग!
30 अप्रैल, 2025 को मोदी सरकार ने ऐलान किया कि अगली जनगणना में जातियों की गिनती होगी. ये खबर आग की तरह फैली. कांग्रेस ने इसे राहुल गांधी की जीत बताया. राहुल ने प्रेस कॉन्फ्रेंस में कहा, “हमने संसद में कहा था कि जातिगत जनगणना करवाकर रहेंगे. पहले मोदी कहते थे कि सिर्फ चार जातियां हैं, लेकिन अब उन्होंने हमारी बात मान ली.”
लेकिन बीजेपी ने पलटवार किया. उसका कहना है कि कांग्रेस ने दशकों तक जातिगत जनगणना का विरोध किया, और अब मोदी सरकार ने सामाजिक न्याय के लिए ये ऐतिहासिक कदम उठाया. बीजेपी ने राहुल पर तंज कसते हुए कहा कि वो देश को जातियों में बांटना चाहते हैं.
राहुल का मास्टरस्ट्रोक या मोदी का दांव?
राहुल गांधी ने इस मुद्दे को जिस तरह उठाया, उसने उन्हें पिछड़े वर्ग और दलित समुदायों के बीच नया चेहरा बना दिया. उन्होंने इसे सामाजिक ‘एक्स-रे’ बताया है, जो देश की सच्चाई सामने लाएगा. लेकिन बीजेपी का कहना है कि राहुल की मांग सिर्फ सियासी ड्रामा था, और असली काम मोदी सरकार ने किया.
राहुल ने सरकार से सवाल भी उठाया कि जातिगत जनगणना का काम कब तक पूरा होगा? इसका टाइमलाइन क्या होगा? दूसरी तरफ, बीजेपी इसे अपनी उपलब्धि बता रही है. दोनों पार्टियां क्रेडिट लेने की होड़ में हैं, लेकिन सच्चाई ये है कि इस फैसले से देश की सियासत में नया रंग भर गया है.
जातिगत जनगणना से देश में सामाजिक और आर्थिक नीतियां बदल सकती हैं. इससे पता चलेगा कि कौन-सी जातियां कितनी आबादी वाली हैं और उनके पास कितने संसाधन हैं. आरक्षण की सीमा बढ़ाने या नई योजनाएं बनाने में ये डेटा गेम-चेंजर साबित हो सकता है. लेकिन इसके साथ ही सियासी समीकरण भी बदलेंगे. क्या राहुल गांधी इस मुद्दे से कांग्रेस को नई ताकत दे पाएंगे? या बीजेपी इसे अपने फायदे में भुना लेगी? ये तो वक्त बताएगा. फिलहाल, राहुल गांधी ने इस मुद्दे को उठाकर सियासी पिच पर छक्का मारा है.