जब एक आदिवासी ने छेड़ी महाजनों के खिलाफ ‘जंग’, कोयलांचल से दिल्ली तक का सफर, शिबू सोरेन की सियासी कहानी
शिबू सोरेन नहीं रहे
Shibu Soren Passes Away: झारखंड की धरती ने आज अपने एक सपूत को खो दिया. दिशोम गुरु शिबू सोरेन ने दिल्ली के सर गंगाराम अस्पताल में अपनी अंतिम सांस ली. 81 वर्ष की उम्र में किडनी की समस्या, ब्रेन स्ट्रोक और पैरालिसिस के बाद वे इस दुनिया को अलविदा कह गए. लेकिन उनकी कहानी, जो जंगल की सियासत से शुरू होकर दिल्ली के दरबार तक पहुंची, झारखंड के इतिहास में सुनहरे अक्षरों में लिखी जाएगी. आइये जानते हैं शिबू सोरेन ने कैसे झारखंड ही नहीं देश की राजनीति में अपना नाम स्थापित किया.
शिबू सोरेन का जन्म 11 जनवरी 1944 को हजारीबाग के नेमरा गांव में एक संथाल आदिवासी परिवार में हुआ. बचपन में ही उनके पिता को महाजनों ने कर्ज के जाल में फंसाकर मार डाला, जिसने शिबू के दिल में सामाजिक अन्याय के खिलाफ आग जला दी. महाजनी प्रथा और शराबखोरी के खिलाफ उन्होंने 1960 के दशक में ‘सोनोत संथाल समाज’ बनाया. यह संगठन आदिवासियों में शिक्षा और समाज सुधार का अलख जगाने का पहला कदम था. शिबू ने मजदूरी और ठेकेदारी जैसे छोटे-मोटे काम किए, लेकिन उनका असली मिशन था, आदिवासियों की जमीन, संस्कृति और हक की रक्षा. 1972 में उन्होंने विनोद बिहारी महतो और एके राय के साथ मिलकर झारखंड मुक्ति मोर्चा (JMM) की नींव रखी. यह सिर्फ एक राजनीतिक दल नहीं, बल्कि एक आंदोलन था, जिसने बिहार से अलग झारखंड राज्य की मांग को हवा दी.
झारखंड आंदोलन
शिबू सोरेन की अगुवाई में JMM ने संताल परगना, कोयलांचल और कोल्हान में अपनी जड़ें जमाईं. उनका ‘हर घर से एक मुट्ठी चावल’ अभियान न सिर्फ धन जुटाने का जरिया था, बल्कि आम लोगों को आंदोलन से जोड़ने का जादुई तरीका था. 1978 की दुमका रैली इसका गवाह है, जब बिहार सरकार ने आंदोलन को कुचलने की कोशिश की. शिबू और उनके साथियों को गिरफ्तार करने की साजिश रची गई, लेकिन जनता ने ऐसा तांडव मचाया कि पुलिस की राइफलें तक लूट ली गईं. 1975 में आपातकाल के दौरान, इंदिरा गांधी के आदेश पर शिबू को गिरफ्तार करने की कोशिश हुई, लेकिन उन्होंने आत्मसमर्पण कर अपनी निष्ठा और निडरता का परिचय दिया. 1980 में JMM को मान्यता मिली और उसी साल शिबू दुमका से लोकसभा सांसद बने. JMM ने 11 सीटें जीतीं, और झारखंड आंदोलन अब सड़कों से संसद तक पहुंच चुका था.
लालू से दो-दो हाथ
1990 के बिहार विधानसभा चुनाव में JMM ने 19 सीटें जीतीं, और लालू प्रसाद यादव की जनता दल को 125. लालू को बहुमत के लिए JMM का समर्थन चाहिए था और शिबू ने यह समर्थन देकर बिहार की सियासत में अपनी ताकत दिखाई. लेकिन लालू और शिबू का रिश्ता कभी सहज नहीं रहा. लालू बिहार को एकजुट रखना चाहते थे, जबकि शिबू का सपना था अलग झारखंड. दोनों के बीच सियासी तलवारें खिंचती रहीं, लेकिन JMM की बढ़ती ताकत और केंद्र का दबाव आखिरकार लालू को झुकने पर मजबूर कर गया. इस दौरान शिबू पर कई आरोप भी लगे. 1975 का चिरूडीह कांड उनकी राह में कांटा बना. इसमें 11 लोगों की हत्या हुई थी. 2004 में इस मामले ने उन्हें मनमोहन सिंह सरकार में कोयला मंत्री पद से इस्तीफा देने को मजबूर किया. 1993 का JMM रिश्वत कांड भी चर्चा में रहा, जब उन पर और उनके सहयोगियों पर नरसिम्हा राव सरकार को बचाने के लिए रिश्वत लेने का आरोप लगा. इन विवादों ने उनकी छवि को धक्का पहुंचाया, लेकिन आदिवासी समुदाय में उनकी लोकप्रियता अडिग रही.
झारखंड का जन्म
लंबे संघर्ष के बाद, 15 नवंबर 2000 को झारखंड बिहार से अलग होकर एक नया राज्य बना. इसमें शिबू सोरेन और JMM की मेहनत और बलिदान का बड़ा योगदान था. लेकिन झारखंड की सियासत में स्थिरता नहीं थी. शिबू तीन बार मुख्यमंत्री बने, पर हर बार उनकी पारी छोटी और तूफानी रही.
पहली बार: 2 मार्च 2005 – 12 मार्च 2005
2005 के झारखंड विधानसभा चुनाव में कोई स्पष्ट बहुमत नहीं था. JMM ने कांग्रेस और RJD के साथ गठबंधन किया, और शिबू सोरेन को मुख्यमंत्री बनाया गया. लेकिन BJP-JDU गठबंधन ने दावा किया कि उनके पास ज्यादा समर्थन है. शिबू को 10 दिन में विधानसभा में बहुमत साबित करना था, पर वे नाकाम रहे. नतीजा? केवल 10 दिन की सत्ता, और फिर कुर्सी छोड़नी पड़ी. अर्जुन मुंडा BJP की ओर से मुख्यमंत्री बने. मजे की बात, ये झारखंड की सियासत का वो दौर था जब कुर्सी की खींचतान ने सबको हंसाया और रुलाया!
दूसरी बार: 27 अगस्त 2008 – 19 जनवरी 2009
2008 में झारखंड में फिर सियासी उलटफेर हुआ. शिबू सोरेन ने UPA (कांग्रेस, RJD, और अन्य) के समर्थन से दोबारा मुख्यमंत्री की कुर्सी संभाली. लेकिन एक शर्त थी कि उन्हें 6 महीने में विधानसभा का सदस्य बनना था. शिबू ने तमाड़ विधानसभा उपचुनाव लड़ा, लेकिन हार गए. नतीजा? केवल 145 दिन बाद सरकार गिरी, और झारखंड में पहली बार राष्ट्रपति शासन लागू हुआ.
तीसरी बार: 30 दिसंबर 2009 – 31 मई 2010
2009 में JMM ने फिर UPA के साथ गठबंधन किया, और शिबू तीसरी बार मुख्यमंत्री बने. इस बार BJP और AJSU भी गठबंधन में थे. लेकिन सियासत का खेल फिर बिगड़ा. BJP ने समर्थन वापस ले लिया, क्योंकि JMM ने केंद्र में UPA के खिलाफ कुछ मुद्दों पर बगावत की. शिबू की सरकार 152 दिन में ढेर हो गई.
जंगल से दिल्ली तक का सफर
शिबू सोरेन ने दिल्ली में भी अपनी धाक जमाई. वे छह बार दुमका से लोकसभा सांसद रहे, 2002 में कुछ समय के लिए राज्यसभा सदस्य बने और तीन बार केंद्र में कोयला मंत्री रहे. उनकी सादगी, आदिवासी हितों के लिए जुनून और जमीनी जुड़ाव ने उन्हें एक अलग पहचान दी. उनके परिवार ने भी उनकी विरासत को आगे बढ़ाया. बेटे हेमंत सोरेन आज झारखंड के मुख्यमंत्री हैं, बहू कल्पना सोरेन और छोटा बेटा बसंत सोरेन दुमका से विधायक हैं. जबकि बड़े बेटे दुर्गा सोरेन का निधन हो चुका है.
दिशोम गुरु की विदाई
जून 2025 में किडनी की समस्या और ब्रेन स्ट्रोक के बाद शिबू सोरेन को सर गंगाराम अस्पताल में भर्ती किया गया. डेढ़ महीने तक वेंटिलेटर पर जिंदगी और मौत से जूझने के बाद, 4 अगस्त 2025 को सुबह 8:56 बजे वे दुनिया छोड़ गए. उनके बेटे हेमंत ने एक्स पर लिखा, “आज मैं शून्य हो गया हूं. गुरुजी ने न केवल झारखंड, बल्कि पूरे देश में सामाजिक न्याय की लड़ाई लड़ी.” राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू, पीएम नरेंद्र मोदी, और कई नेताओं ने उनके निधन पर शोक जताया. शिबू सोरेन सिर्फ एक नेता नहीं, एक आंदोलन थे. जंगल की मिट्टी से उठकर उन्होंने झारखंड को नई पहचान दी.