तीन साल की मेहनत, लाखों की भीड़, फिर भी ‘बस्ता’ खाली…बिहार में कैसे फेल हो गए पीएम-सीएम बनाने वाले प्रशांत किशोर?
प्रशांत किशोर
Bihar Election 2025 Results: बिहार की राजनीति का मंच कभी इतना कठोर नहीं पड़ा था. एक तरफ जहां एनडीए ने 190 से अधिक सीटों पर बढ़त बनाकर अपनी सत्ता को और मजबूत कर लिया है, वहीं महागठबंधन 68 सीटों पर सिमटता हुआ दिखाई दे रहा है. लेकिन सबसे बड़ा झटका लगा है उस ‘रणनीतिकार’ को, जिसने कभी नरेंद्र मोदी की जीत का खाका खींचा था, नीतीश कुमार को सत्ता की कुर्सी दिलाई थी.
जी हां, हम बात कर रहे हैं प्रशांत किशोर (Prashant Kishor) की. उनकी जन सुराज पार्टी (Jan Suraj Party), जो तीन साल से बिहार की धरती पर ‘बदलाव’ का दावा कर रही थी, चुनावी मैदान में खाता भी नहीं खोल पाई है. शुरुआती रुझानों में एक-दो सीटों पर बढ़त दिखी, लेकिन अंत तक शून्य. एक्जिट पोल्स ने इसे ‘फर्श पर’ बताया था और परिणामों ने साबित भी कर दिया. प्रशांत किशोर ने खुद कहा था कि या तो अर्श पर, या फर्श पर. बीच का रास्ता नहीं. एक्जिट पोल्स के मुताबिक, वोट प्रतिशत 10-12% रहने की संभावना थी.
परिणामों ने साफ कर दिया अभी ‘फर्श’ पर रहेंगे प्रशांत
243 सीटों वाली विधानसभा में 238 पर उम्मीदवार उतारने वाली यह पार्टी, जो रोजगार, शिक्षा और पलायन जैसे मुद्दों पर ‘घर-घर’ पहुंची थी, वोटों को बिखरते देख रही है. तो सवाल उठता है कि आखिर क्यों फेल हो गए बिहार के ‘चाणक्य’? क्यों सभाओं में उमड़ने वाली लाखों की भीड़ मतपेटी तक नहीं पहुंची? आइए, इस राजनीतिक ड्रामे की परतें खोलते हैं.
पदयात्रा से प्रॉमिस कार्ड तक का सफर
2022 में शुरू हुई जन सुराज पदयात्रा बिहार की सड़कों पर एक तूफान की तरह चली. प्रशांत किशोर ने 3,500 किलोमीटर की यह यात्रा अकेले तय की, हर गांव, हर गली में पहुंचे. उनका फोकस था, बेरोजगारी. लाखों युवा पलायन कर रहे हैं, रोजगार क्यों नहीं है? यह नारा हर रैली में गूंजा. पार्टी ने ‘प्रॉमिस कार्ड’ बांटा, जिसमें महिलाओं को सालाना 20,000 रुपये की मदद, हर घर में नौकरी का वादा और शिक्षा-स्वास्थ्य पर जोर था.
पटना के गांधी मैदान से लेकर दरभंगा की सड़कों तक, पीले झंडे लहराए. सोशल मीडिया पर वीडियो वायरल हुए, जहां किशोर नीतीश सरकार पर हमलावर थे. प्रशांत ने कहा था कि पांच साल लूटा, अब चुनाव से पहले 5-10 हजार रुपये बांट रहे हैं. युवाओं में जोश था, खासकर उनमें जो नौकरी के इंतजार में दिल्ली-मुंबई की बसों में सवार होते हैं. लेकिन शुरुआती रूझान ने ही साफ कर दिया कि यह जोश वोटों में नहीं बदला.
वोट में क्यों तब्दील नहीं हुई भीड़
जन सुराज का सबसे बड़ा दावा था कि हम तीसरा विकल्प हैं. लेकिन बिहार की राजनीति जाति और गठबंधनों की जंजीरों में जकड़ी है. किशोर ने जाति को पीछे छोड़ मुद्दों पर जोर दिया, लेकिन वोटरों ने ‘लीप ऑफ फेथ’ नहीं लिया. शुरुआती ट्रेंड्स में चंपतिया और करगहर जैसी दो सीटों पर बढ़त दिखी, लेकिन जल्द ही खिसक गई.
वोट शेयर तो बढ़े. ग्रामीण इलाकों में जहां महागठबंधन मजबूत था, वहां जन सुराज के उम्मीदवारों ने वोट काटे, लेकिन इतने नहीं कि एनडीए हिले. शहरी क्षेत्रों में ऊपरी जातियों का समर्थन मिला, लेकिन दलित, मुस्लिम और ओबीसी नदारद रहे.
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आखिर क्या गड़बड़ हुई?
प्रशांत किशोर की रणनीति ने दूसरों को जिताया, लेकिन खुद के लिए क्यों उलटी पड़ी? विशेषज्ञों और आंकड़ों से उभरते हैं ये कारण. दरअसल, प्रशांत किशोर जाति की दीवार नहीं तोड़ पाए. जन सुराज ऊपरी जातियों पर निर्भर रही, लेकिन मंडल राज्य में ईबीसी, दलित और मुस्लिम बेस न बनी. ऊपरी जाति का सुधारक टैग लगा.
कैडर टिकट न मिलने पर बगावत कर स्वतंत्र लड़े या एनडीए औरआरजेडी में चले गए. दोनों गठबंधन ने जन सुराज को “बी-टीम” कहा कि एनडीए ने कहा आरजेडी की, महागठबंधन ने बीजेपी की. विश्वसनीयता डूबी.
रणनीति का ‘आई-पैक’ जाल
किशोर की आई-पैक वाली डेटा-ड्रिवन अप्रोच पार्टी बिल्डिंग में फेल. हर सीट पर उम्मीदवार उतारे, लेकिन लोकल पावर सेंटर न बने. हालांकि, इस सबसे इतर विश्लेषक मानते हैं कि मुद्दे उठाने में प्रशांत किशोर सफल रहे. रोजगार का विमर्श बदला, एनडीए-महागठबंधन को मजबूर किया. लेकिन बिहार की राजनीति अनिश्चित है. 2030 तक नया अध्याय लिख सकते हैं. फिलहाल, ‘जन सुराज’ का सूरज ढलता दिख रहा है, लेकिन सबक बिहार के लिए अमूल्य है. क्या बेरोजगारी का मुद्दा कभी वोट बनेगा?