कभी कुलस्ते ने लहराई थी नोटों की गड्डियां, अब सिंघवी पर लगे आरोप…संसद में कब-कब चला पैसों का ‘खेल’?
Parliament Note Controversy: भारतीय राजनीति में कई घटनाएं ऐसी होती हैं जो न सिर्फ सुर्खियां बनकर रह जातीं, बल्कि राजनीति के भ्रष्टाचार और उसके खेल को पर्दे के पीछे से उजागर करती हैं. और फिर कुछ घटनाएं ऐसी होती हैं, जिनकी गूंज सालों बाद भी सुनाई देती है. ऐसा ही कुछ हाल ही में हुआ जब राज्यसभा में कांग्रेस की बेंच से नोटों की गड्डी मिलने का मामला सामने आया. अब इस मामले पर राजनीतिक तंज तो हो ही रहे हैं, लेकिन क्या यह घटना सिर्फ एक संयोग है या फिर यह संसद में सत्ता, भ्रष्टाचार और पैसे के गहरे संबंधों की कहानी को फिर से बयान करती है? यह सवाल यहीं से शुरू होता है. ऐसा नहीं है कि संसद में नोटों का मामला पहली बार सामने आया है, इससे पहले भी संसद में नोटों की गड्डियां लहराई जा चुकी हैं. आइये आज 2008 के ‘कुलस्ते स्टाइल नोट कांड’ के बारे में विस्तार से जानते हैं…
2008 का नोट कांड
हम 2008 की गर्मियों में वापस चलते हैं, जब संसद में एक और गंभीर घटना घटी थी. लोकसभा में तत्कालीन प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह की सरकार के खिलाफ विश्वास मत प्रस्ताव को लेकर बहस चल रही थी. शाम के चार बजे थे. तब भाजपा के तीन सांसद इनमें मध्य प्रदेश से फग्गन सिंह कुलस्ते (मंडला), अशोक अर्गल (मुरैना) और राजस्थान के महावीर भगोरा (सलुंबर) सदन में एक बैग लेकर पहुंचे. उन्होंने इसे लोकसभा महासचिव की टेबल पर रखा. तीनों सांसदों ने बैग से नोटों की गड्डियों को निकाला और लहराने लगे.
जब उन सांसदों ने नोटों की गड्डियां लहराई, तो शोर मच गया. संसद की कार्यवाही रुक गई और यह सवाल उठा – क्या संसद में इतना बड़ा भ्रष्टाचार हो रहा है कि सांसदों को खुलेआम घूस देने की कोशिश की जा रही है? ये घटनाएं घटित हुईं और संसद के गलियारों में एक नया तूफान आ गया.
क्यों लहराई गईं थी गड्डियां?
अब आपके मन में सवाल उठ रहा होगा कि क्या ये सांसद तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की सरकार का विश्वास मत गिराने के लिए पैसे लेकर आ रहे थे? नहीं, वे सिर्फ यह साबित करने के लिए आए थे कि उनका दावा सही था – “हमारे पास घूस देने का सबूत है!” वे आरोप लगा रहे थे कि विश्वास मत के समर्थन में वोट देने के लिए उन्हें 9 करोड़ रुपये की घूस दी जा रही है.
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मामले की जांच के लिए बनाई गई थी समिति
फग्गन सिंह कुलस्ते और उनके साथियों के आरोपों की जांच के लिए संसद की एक समिति बनाई गई और इस मामले को दिल्ली पुलिस की क्राइम ब्रांच को सौंप दिया गया. लेकिन क्या हुआ? जांच तो हुई, लेकिन यह मामला धीरे-धीरे ठंडा पड़ गया. यह एक उदाहरण था कि किस तरह भ्रष्टाचार के आरोप संसद में भी हंसी-ठठा और राजनीतिक दबाव के बीच दबा दिए जाते हैं. हालांकि, यह घटना भारतीय राजनीति के इतिहास में एक काले धब्बे के रूप में दर्ज हो गई, लेकिन इसका कोई ठोस परिणाम सामने नहीं आया.
अब 2024 का राज्यसभा विवाद
अब आते हैं 2024 की ओर, जहां राज्यसभा में कांग्रेस की बेंच से नोटों की गड्डी मिलने का मामला सामने आया. क्या यह सिर्फ एक संयोग है, या फिर संसद में पैसे का खेल फिर से सामने आ गया है? इस बार भी सभापति ने इसे गंभीर मामला बताते हुए जांच की बात की. बाद में यह पता चला कि यह नोटों की गड्डियां कांग्रेस के अभिषेक मनु सिंघवी की सीट से मिली थीं. तो क्या यही वही नोटों की गड्डियां हैं, जो कभी 2008 में विश्वास मत के दौरान लहराई गई थीं?
यह घटना न केवल गंभीर सवाल उठाती है, बल्कि यह सवाल भी खड़ा करती है कि क्या संसद में वही पुरानी राजनीति चल रही है, जहां पैसा और सत्ता के खेल अब भी जीवित हैं. 2008 के ‘नोट कांड’ से 2024 के इस नए विवाद तक, एक समानता यह है कि दोनों ही मामलों में पैसे का महत्व केंद्रीय है. क्या यह साबित नहीं करता कि भारतीय संसद में लोकतंत्र का खेल अब भी धन और शक्ति की ऊंची दीवारों के पीछे छुपा हुआ है?
कुलस्ते और सिंघवी: क्या एक ही सिक्के के दो पहलू?
अब अगर हम फग्गन सिंह कुलस्ते और अभिषेक मनु सिंघवी के मामलों को जोड़कर देखें, तो सवाल यह उठता है कि क्या ये दोनों अलग-अलग राजनीति के दो पहलू हैं? फग्गन सिंह कुलस्ते का नाम पहले भी विवादों में रहा है. एक निजी चैनल ने उनका स्टिंग ऑपरेशन भी कर दिया था. सवाल अब भी है कि क्या यह वही राजनीति नहीं है, जो आज अभिषेक मनु सिंघवी के मामले में देखी जा रही है? क्या यह सत्ता और पैसे का खेल एक ही दिशा में चल रहा है? दोनों मामलों में एक समानता यह है कि दोनों ही नेताओं के नाम समय-समय पर विवादों में रहे हैं.
क्या बदला है, और क्या नहीं?
इस पूरे घटनाक्रम से यह सवाल उठता है कि क्या भारतीय राजनीति में कुछ भी नहीं बदला? 2008 में नोटों की गड्डियों का मामला था, और अब 2024 में भी ही एक मामला सामने आ रहा है. यह हमें यह याद दिलाता है कि भारतीय राजनीति में जितनी भी सफाई की बातें होती हैं, असल में सत्ता और धन का खेल कभी भी थमता नहीं. चाहे 2008 का नोट कांड हो या 2024 का राज्यसभा विवाद, दोनों ही घटनाओं से यह जाहिर होता है कि राजनीति में पैसे का असर हमेशा से रहा है और शायद हमेशा रहेगा. अंत में, यह कहना गलत नहीं होगा कि भारतीय राजनीति की असल सच्चाई कुछ इस तरह की ही है – जहां सत्ता का खेल चलता रहता है, वहां पैसे की ताकत कभी भी गुम नहीं होती?