उम्मीदवारों के ऐलान में देरी क्यों…क्या हरियाणा विधानसभा चुनाव से पहले बगावत ने बढ़ाई BJP की बेचैनी?
Haryana Assembly Election: पिछले बुधवार को हरियाणा भाजपा प्रमुख मोहन सिंह बडोली और सोनीपत के राई निर्वाचन क्षेत्र के मौजूदा विधायक ने ऐलान कर दिया कि वह विधानसभा चुनाव नहीं लड़ेंगे. उसी दिन उन्होंने यह भी कहा, “मुख्यमंत्री नायब सिंह सैनी कुरुक्षेत्र के लाडवा निर्वाचन क्षेत्र से चुनाव लड़ेंगे.” हालांकि, सीएम सैनी ने मीडिया से कहा कि उनकी ऐसी कोई योजना नहीं है और वे केवल करनाल से ही चुनाव लड़ेंगे. हालांकि, 12 घंटे के भीतर ही सैनी को अपने शब्द वापस लेने पड़े. उनके प्रतिनिधि को बयान जारी कर कहना पड़ा कि सैनी पार्टी के समर्पित सिपाही हैं और पार्टी जहां से तय करेगी, वहीं से चुनाव लड़ेंगे.
JJP के चार विधायक बने सिरदर्द
हरियाणा भाजपा में हालात ऐसे हैं कि राज्य के मुख्यमंत्री भी असमंजस में हैं कि वे किस सीट से चुनाव लड़ेंगे. जबकि प्रदेश अध्यक्ष बडोली भी चुनाव लड़ने में रुचि नहीं दिखा रहे हैं. पूर्व सांसद संजय भाटिया जैसे कई अन्य वरिष्ठ नेताओं ने भी चुनाव लड़ने से मना कर दिया है. वहीं, पार्टी को कई सीटों पर बगावत का सामना करना पड़ रहा है, जहां कई टिकट चाहने वाले हैं. यहां तक कि दुष्यंत चौटाला की जननायक जनता पार्टी (JJP) के चार विधायकों को पार्टी में शामिल करने का फैसला भी भाजपा नेतृत्व के लिए सिरदर्द साबित हो रहा है, क्योंकि उन्हें पार्टी के समर्पित नेताओं की कीमत पर ठिकाना देना होगा.
कांग्रेस में नई जान और सत्ता विरोधी लहर!
इसके साथ ही कांग्रेस में नई जान फूंकना और दस साल की सत्ता विरोधी लहर को जोड़ दें तो हरियाणा में भाजपा के लिए मुश्किलें और बढ़ गई हैं. नौ साल से ज़्यादा समय तक मुख्यमंत्री रहे पंजाबी खत्री मनोहर लाल खट्टर की जगह ओबीसी नायब सिंह सैनी को लाने के फैसले के बावजूद, लोकसभा चुनावों में भाजपा का प्रदर्शन औसत से कम रहा. 2019 में 10 सीटों के हाई स्कोर से भाजपा इस बार सिर्फ़ पांच सीटें ही जीत सकी और बाकी पांच सीटें कांग्रेस के खाते में चली गई है. यहां तक कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता भी इस गिरावट को रोकने में विफल रही.
हालांकि, राज्य में भाजपा के लिए दीवार पर लिखी इबारत साफ़ है. हरियाणा में भाजपा को लगातार दो जनादेश देने के बाद राज्य के लोग उनके काम से पूरी तरह से खुश नहीं हैं और शायद बदलाव की तलाश कर रहे हैं. जब तक भाजपा अपनी आस्तीन में कोई इक्का नहीं लाती या कांग्रेस कोई बड़ी गलती नहीं करती, हरियाणा चुनाव अलग दिशा में बढ़ती दिखाई दे रही है.
कैसे इस चुनाव को संभाल सकती है बीजेपी?
क्या चुनाव प्रबंधन भाजपा को बचा सकता है? पार्टी में मौजूदा अराजकता को देखते हुए यह भी एक दूर की कौड़ी लगती है. 90 विधानसभा सीटों के लिए उम्मीदवारों की सूची अभी तक जारी नहीं हुई है. केंद्रीय नेतृत्व और राज्य इकाई के बीच सात दौर की बैठकों के बावजूद सूची पर अभी तक अपडेट नहीं है. पीएम मोदी, भाजपा अध्यक्ष जेपी नड्डा और गृह मंत्री अमित शाह वाली केंद्रीय चुनाव समिति भी इस संबंध में एक बार बैठक कर चुकी है. और अगर कुछ मीडिया रिपोर्टों पर विश्वास किया जाए, तो पार्टी ने अभी तक केवल 55 सीटों को अंतिम रूप दिया है और शेष 35 पर असहमति और विद्रोह का सामना करना पड़ रहा है.
पार्टी को यहां गतिरोध को हल करने में अभी भी कुछ समय लग सकता है क्योंकि मतदान ठीक 32 दिन दूर 5 अक्टूबर को है. जेजेपी के चार विधायकों को भाजपा में शामिल करने से पार्टी के लिए एक और बड़ी समस्या खड़ी हो गई है. इनमें से दो ने 2019 में भाजपा के वरिष्ठ नेताओं को हराया था, जिन्हें बिना नतीजों के टिकट के लिए दरकिनार नहीं किया जा सकता है. देवेंद्र सिंह ने टोहाना से भाजपा के तत्कालीन प्रदेश अध्यक्ष सुभाष बराला को हराया, जबकि राम कुमार गौतम ने नारनौंद से तत्कालीन कैबिनेट मंत्री कैप्टन अभिमन्यु को हराया. जीतने वाले और हारने वाले दोनों ही इन सीटों से टिकट की उम्मीद कर रहे हैं. पार्टी बिना किसी को अलग किए किसे चुनेगी?
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पूर्व सीएम खट्टर की भूमिका तय नहीं!
पूर्व सीएम खट्टर की भूमिका को लेकर भी निश्चित नहीं है कि पूर्व सीएम खट्टर चुनाव में क्या भूमिका निभा सकते हैं. भाजपा नेताओं का एक वर्ग मानता है कि खट्टर के प्रशासन के खिलाफ व्यापक गुस्सा है और उन्हें प्रचार से दूर रखा जाना चाहिए, जबकि अन्य का मानना है कि खट्टर को बचाने से पार्टी के लिए अपने शासन रिकॉर्ड के आधार पर वोट मांगना मुश्किल हो जाएगा. यह भी सुझाव दिया जाता है कि खट्टर जाट बहुल ग्रामीण निर्वाचन क्षेत्रों से बचते हुए अपने संसदीय क्षेत्र करनाल और अन्य शहरों जैसे कुछ चुनिंदा इलाकों में प्रचार कर सकते हैं.
क्या उम्मीदवारों की घोषणा में देरी रणनीति का हिस्सा है?
इन सबके बीच पार्टी का कहना है कि उम्मीदवारों की घोषणा में देरी उसकी रणनीति का हिस्सा है. टिकट न मिलने पर नेताओं के पलायन को लेकर पार्टी हमेशा आशंकित रहती है. इसलिए, वे आमतौर पर आखिरी क्षण तक घोषणा में देरी करते हैं ताकि उनके पास विरोधी खेमे से सौदेबाजी करने के लिए पर्याप्त पैसा न हो. इसके अलावा, कई बार विरोधी उम्मीदवार पार्टी को उसके लिए सबसे उपयुक्त उम्मीदवार तय करने में मदद कर सकते हैं. क्या भाजपा इंतजार कर रही है और यही देख रही है?