संकट से समृद्धि तक…कैसे Manmohan Singh ने 1991 में बदल दी थी भारत की तक़दीर?

आज, हम जिस भारत को देखते हैं, वह पूरी तरह से उस 1991 के आर्थिक सुधारों का परिणाम है. यह कदम न केवल देश को आर्थिक संकट से उबारा, बल्कि भारत को वैश्विक शक्ति बनने की दिशा में भी अग्रसर किया.
डॉ. मनमोहन सिंह और तत्कालीन प्रधानमंत्री पी.वी. नरसिम्हा राव

डॉ. मनमोहन सिंह और तत्कालीन प्रधानमंत्री पी.वी. नरसिम्हा राव

Manmohan Singh Story: 1991 में भारत की आर्थिक स्थिति काफी नाजुक थी. देश संकट में था. विदेशों से लिया गया कर्ज चुकाने के लिए पैसा नहीं था. विदेशों से आयात के लिए विदेशी मुद्रा भंडार इतना कम हो चुका था कि वह पखवाड़े भर भी चलने के लिए पर्याप्त नहीं था. मगर, भारत ने एक बड़ा कदम उठाया और आर्थिक सुधारों की दिशा में इतिहास रचा.

इस समय के वित्त मंत्री, डॉ. मनमोहन सिंह और तत्कालीन प्रधानमंत्री पी.वी. नरसिम्हा राव ने मिलकर ‘नई आर्थिक नीति’ 1991 पेश की. इस नीति ने भारत की अर्थव्यवस्था को फिर से दिशा दी, जिससे देश दुनिया की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्थाओं में शुमार हो गया. तो, चलिए जानते हैं कैसे ये सुधार काम आए!

1991 में आर्थिक संकट

भारत की अर्थव्यवस्था 1980 के दशक के अंत तक बहुत कमजोर हो चुकी थी. 1985 तक भुगतान संतुलन की समस्या शुरू हो गई थी. इसका मतलब था कि भारत विदेशों से सामान मंगाने के लिए इतना पैसा खर्च कर रहा था कि उसकी आय उससे कहीं कम थी. इसके अलावा, सरकार का खर्च बहुत बढ़ गया था, जबकि सरकारी आय स्थिर रही. इस असमानता की वजह से देश के पास विदेशी मुद्रा भंडार भी बेहद कम हो गया था.

1990 के अंत तक, यह स्थिति बहुत विकट हो गई थी. भारत को डिफॉल्ट यानी विदेशों से लिए गए कर्ज का भुगतान करने में कठिनाई हो रही थी. इतना ही नहीं, विदेशी मुद्रा भंडार इतनी घट चुकी थी कि वह पखवाड़े भर भी नहीं चल सकता था. 1991 तक भारतीय अर्थव्यवस्था अस्थिरता की ओर बढ़ रही थी. इसके कारण सरकार को गंभीर संकट का सामना करना पड़ा और उन्होंने सुधारों की दिशा में कदम उठाने का फैसला किया.

डॉ. मनमोहन सिंह और पी.वी. नरसिम्हा राव की जोड़ी

देश की गंभीर स्थिति को देखकर तत्कालीन वित्त मंत्री डॉ. मनमोहन सिंह और प्रधानमंत्री पी.वी. नरसिम्हा राव ने आर्थिक सुधारों के लिए साहसिक कदम उठाए. 1991 में उन्होंने ‘नई आर्थिक नीति’ पेश की, जो भारत के आर्थिक परिदृश्य को पूरी तरह बदलने वाली थी. डॉ. मनमोहन सिंह के नेतृत्व में इन सुधारों ने भारत को संकट से उबारने और वैश्विक आर्थिक ताकतों के बीच अपनी स्थिति मजबूत करने में मदद की.

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“समय बर्बाद करने का कोई मौका नहीं है”

24 जुलाई, 1991 को जब डॉ. मनमोहन सिंह ने बजट पेश किया, तो उन्होंने अपनी स्थिति स्पष्ट करते हुए कहा कि समय बर्बाद करने का कोई मौका नहीं है. न तो सरकार और न ही अर्थव्यवस्था साल दर साल अपनी क्षमता से ज्यादा खर्च कर सकती है.”

आर्थिक सुधार के प्रमुख क्षेत्र

स्थिरीकरण उपाय (Stabilization Measures)

यह कदम तत्काल आर्थिक संकट को संभालने के लिए थे. इनमें मुद्रास्फीति को काबू में करना, विदेशी मुद्रा भंडार में सुधार लाना, और भुगतान संतुलन के संकट से निपटना शामिल था. भारत ने विदेशी मुद्रा संकट को हल करने के लिए रुपये की अवमूल्यन (devaluation) की नीति अपनाई, जिससे विदेशी निवेश में वृद्धि हुई.

संरचनात्मक उपाय (Structural Measures)

यह कदम भारतीय अर्थव्यवस्था की लंबी अवधि में स्थिरता बढ़ाने के लिए थे. इसके तहत कई सुधार किए गए, जैसे कि उदारीकरण, निजीकरण और वैश्वीकरण.

उदारीकरण (Liberalization)

उदारीकरण का मतलब था कि भारत के उद्योगों को ज्यादा खुला और स्वतंत्र बनाने का प्रयास किया गया. पहले, कई उद्योगों को सरकारी नियंत्रण में रखा जाता था, जिनके लिए लाइसेंसिंग आवश्यक थी. 1991 में सरकार ने औद्योगिक लाइसेंसिंग को खत्म कर दिया. केवल कुछ क्षेत्रों जैसे- रेलवे, रक्षा, परमाणु ऊर्जा को सरकारी नियंत्रण में रखा गया. इससे भारतीय उद्योग को ज्यादा स्वतंत्रता मिली और प्रतिस्पर्धा बढ़ी.

निजीकरण (Privatization)

यह प्रक्रिया सरकारी क्षेत्रों को निजी क्षेत्र के हाथों में सौंपने की थी. इसका उद्देश्य था सरकारी कंपनियों को वित्तीय रूप से मजबूत बनाना और उनकी कार्यक्षमता को बढ़ाना. सरकार ने सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियों की हिस्सेदारी को निजी निवेशकों के हाथों में बेचने की प्रक्रिया शुरू की. इस प्रक्रिया को विनिवेश (Disinvestment) कहा गया, जिससे सरकार को राजस्व प्राप्त हुआ और कंपनियों को नए निवेशक मिले. निजीकरण से न केवल निवेश बढ़ा, बल्कि उत्पादन क्षमता में भी सुधार हुआ.

वैश्वीकरण (Globalization)

1991 के सुधारों के तहत भारत को वैश्विक बाजारों के साथ जोड़ने की दिशा में कदम उठाए गए. आयात-निर्यात नीति में ढील दी गई, और कई व्यापार प्रतिबंधों को हटा लिया गया. विदेशी निवेश को आकर्षित करने के लिए भारत ने अपने व्यापार नीति को उदार बनाया. इसका परिणाम यह हुआ कि भारत के उद्योगों को वैश्विक बाजारों में प्रवेश करने का अवसर मिला.

वित्तीय क्षेत्र में सुधार (Financial Sector Reforms)

वित्तीय क्षेत्र में सुधारों का उद्देश्य भारतीय वित्तीय प्रणाली को अधिक कुशल बनाना था. इसके तहत भारतीय रिजर्व बैंक (RBI) की भूमिका को वित्तीय क्षेत्र के नियामक से सुविधाकर्ता में बदल दिया गया. इसके परिणामस्वरूप निजी बैंकों की स्थापना हुई और बैंकों में विदेशी निवेश की सीमा बढ़ाई गई. भारतीय बैंकों ने अपने कामकाजी तरीके में बदलाव किया, जिससे बैंकों का कामकाजी ढांचा मजबूत हुआ और बेहतर सेवाएं दी जाने लगीं.

टैक्स सुधार (Tax Reforms)

पारदर्शिता और न्यायपूर्ण टैक्स प्रणाली की दिशा में महत्वपूर्ण कदम उठाए गए. पहले की टैक्स प्रणाली में 11 स्लैब थे, जिनमें टैक्स की दरें 10% से 85% तक थीं. डॉ. मनमोहन सिंह के सुधारों के तहत यह स्लैब घटाकर तीन कर दिए गए: 20%, 30%, और 40%. इससे न केवल टैक्स प्रणाली सरल हुई, बल्कि टैक्स जमा करने में भी ज्यादा पारदर्शिता आई.

विदेशी मुद्रा सुधार (Foreign Exchange Reforms)

विदेशी मुद्रा बाजार को स्वतंत्र किया गया, जिससे भारतीय रुपये की दर बाजार में निर्धारित होने लगी. इसके परिणामस्वरूप विदेशी मुद्रा का प्रवाह बढ़ा और भारतीय अर्थव्यवस्था को अधिक स्थिरता मिली. इसके साथ ही विदेशी निवेशकों के लिए भारत एक आकर्षक बाजार बन गया.

व्यापार और निवेश नीति सुधार (Trade and Investment Policy Reforms)

भारत ने आयात पर लगे प्रतिबंधों को हटा दिया, जिससे व्यापार और निवेश के अवसर बढ़े. इसके अलावा, आयात शुल्क में कटौती की गई और निर्यात को बढ़ावा देने के लिए निर्यात शुल्क को समाप्त किया गया. इस कदम ने भारतीय व्यापार को वैश्विक बाजारों में प्रतिस्पर्धी बनाने में मदद की.

भारत की नई दिशा

इन सुधारों के परिणामस्वरूप भारतीय अर्थव्यवस्था में स्थिरता आई, और भारत ने अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर अपनी स्थिति मजबूत की. भारत की आर्थिक वृद्धि दर में सुधार आया, विदेशी निवेश बढ़ा और भारतीय उद्योग वैश्विक स्तर पर प्रतिस्पर्धी बन गए.

आज, हम जिस भारत को देखते हैं, वह पूरी तरह से उस 1991 के आर्थिक सुधारों का परिणाम है. यह कदम न केवल देश को आर्थिक संकट से उबारा, बल्कि भारत को वैश्विक शक्ति बनने की दिशा में भी अग्रसर किया.

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