जून में हारे, अक्टूबर में जीते उमर…चंद महीनों में ही बदल दी घाटी की फिजा, कहां चूक गईं महबूबा?
जम्मू-कश्मीर में विधानसभा चुनाव के नतीजे आते ही नेशनल कॉन्फ्रेंस (National Conference) के अध्यक्ष फारूक अब्दुल्ला ने ऐलान कर दिया कि उनके बेटे उमर अब्दुल्ला (Omar Abdullah) ही राज्य के अगले मुख्यमंत्री होंगे. 54 वर्षीय उमर अब्दुल्ला जम्मू-कश्मीर के प्रमुख राजनीतिक परिवार से आते हैं और यह उनका दूसरा कार्यकाल होगा. इससे पहले उन्होंने 2009 में मुख्यमंत्री पद संभाला था.
उमर अब्दुल्ला की मुख्यमंत्री के रूप में वापसी
जम्मू-कश्मीर में पिछले दस सालों में पहली बार विधानसभा चुनाव हुए हैं, और इसके विशेष राज्य का दर्जा खत्म हुए भी पांच साल बीत चुके हैं. जीत के बाद उमर अब्दुल्ला ने पत्रकारों से बात करते हुए कहा, “2018 के बाद अब एक लोकतांत्रिक सरकार जम्मू-कश्मीर की कमान संभालेगी. बीजेपी ने नेशनल कॉन्फ्रेंस सहित कश्मीर की पार्टियों को कमजोर करने की पूरी कोशिश की, लेकिन इन चुनावों ने उन प्रयासों को नकार दिया है.” हालांकि उमर अब्दुल्ला लोकसभा चुनावों में बारामुला से हार गए थे, तब उन्होंने तिहाड़ जेल में बंद इंजीनियर रशीद के खिलाफ चुनाव लड़ा था. बावजूद इसके, उनका राजनीतिक सफर इस चुनाव में जीत के साथ फिर से ऊंचाइयों पर पहुंच गया है.
अनुच्छेद 370 और नई चुनौतियां
जम्मू-कश्मीर का राजनीतिक परिदृश्य 2019 में अनुच्छेद 370 को समाप्त करने के बाद पूरी तरह बदल गया. अब राज्य का विशेष दर्जा खत्म हो चुका है. इसके अलावा, लद्दाख अब जम्मू-कश्मीर से अलग हो गया है. इस बदले हुए ढांचे में मुख्यमंत्री के पास पहले जैसी राजनीतिक ताकत नहीं होगी, क्योंकि अधिकतर निर्णय अब उपराज्यपाल और केंद्र सरकार के अधीन होंगे. राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि उमर अब्दुल्ला इस चुनाव के जरिए यह संदेश देने में सफल रहे हैं कि कश्मीर के लोग अभी भी उन पर विश्वास करते हैं. हालांकि, उनके पास अब सीमित शक्ति होगी, फिर भी उनकी जीत प्रतीकात्मक रूप से महत्वपूर्ण मानी जा रही है.
लोकसभा चुनाव में उमर अब्दुल्ला 2 लाख वोट से हार गए थे. लेकिन चंद महीने बाद ही उन्होंने न सिर्फ खुद दो सीटों से चुनाव जीते बल्कि अपनी पार्टी को भी 42 सीटों पर जीत दिला दी. चुनाव से पहले उमर अब्दुल्ला ने ऐलान किया था कि वो चुनाव नहीं लड़ेंगे. उन्होंने कहा था कि जब तक जम्मू-कश्मीर को राज्य का दर्जा नहीं मिल जाता तब तक मैं चुनाव नहीं लड़ूंगा, लेकिन बाद में उन्होंने अपना इरादा बदल लिया. विधानसभा चुनाव में उमर अब्दुल्ला ने गांदरबल और बड़गाम, दोनों सीटें ही जीत लीं.
उमर अब्दुल्ला की रणनीति
इस चुनाव में उमर अब्दुल्ला और उनकी पार्टी ने कश्मीरियत और स्थानीय पहचान के मुद्दे को केंद्र में रखा. नेशनल कॉन्फ्रेंस का यह चुनावी संदेश था कि कश्मीर की पहचान और यहां के लोगों के अधिकारों के साथ कोई समझौता नहीं हो सकता. उमर अब्दुल्ला ने अपने चुनावी अभियान में इस बात को प्रमुखता से उठाया कि दिल्ली ने कश्मीर की संस्कृति और पहचान को नुकसान पहुंचाया है.
यह भी पढ़ें: कश्मीर में अलगावादी नेताओं को बड़ा झटका, इंजीनियर रशीद की पार्टी और जमात को जनता ने नकारा
सीमित शक्तियां पर भारी जिम्मेदारी
हालांकि, अब जम्मू-कश्मीर का मुख्यमंत्री पद सीमित शक्ति वाला हो गया है. उमर अब्दुल्ला के खुद के शब्दों में, वे अब उस स्थिति में नहीं हैं, जहां उन्हें उपराज्यपाल से छोटे-छोटे निर्णयों के लिए अनुमोदन लेना पड़े. फिर भी, कश्मीर के लोग उनसे उम्मीदें लगाए बैठे हैं. भले ही उमर के पास सीमित अधिकार होंगे, लेकिन कश्मीर के लोगों की उम्मीदों का बोझ उनके कंधों पर ही होगा.
उमर अब्दुल्ला की राजनीति
2019 में अनुच्छेद 370 के हटाए जाने के बाद उमर अब्दुल्ला सरकार के खिलाफ एक सशक्त आवाज़ बने. वे लंबे समय तक नजरबंद भी रहे, लेकिन उनका संघर्ष जारी रहा. अब, जब वे दोबारा मुख्यमंत्री बनने जा रहे हैं, तो उनके सामने नई चुनौतियां होंगी. कश्मीर की बदली हुई राजनीतिक स्थिति में अब उन्हें सीमित शक्तियों के साथ काम करना होगा, लेकिन कश्मीर के लोगों की उम्मीदें अभी भी उन पर टिकी हुई हैं. अब देखना होगा कि उमर अब्दुल्ला इन चुनौतियों का सामना कैसे करते हैं और कश्मीर के लोगों की आकांक्षाओं को कैसे पूरा कर पाते हैं.
महबूबा से खफा जनता
अब जरा पीडीपी समेत और दलों का हाल जान लेते हैं. दरअसल, जम्मू कश्मीर में अन्य प्रमुख पार्टियों को खासा नुकसान उठाना पड़ा. पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी और इंजीनियर राशिद की पार्टी उम्मीदों पर खरा नहीं उतर पाई. 2014 के चुनावों के बाद पीडीपी ने भारतीय जनता पार्टी के साथ गठबंधन किया था, जिसके चलते पार्टी के प्रति मतदाताओं का भरोसा कम हो गया. इसका असर इस चुनाव में साफ देखने को मिला, जहां पीडीपी केवल तीन सीटों पर सिमट गई. लोगों के पास नेशनल कॉन्फ्रेंस के अलावा कोई दूसरा विकल्प नहीं दिखा, जिस पर वे भरोसा कर सकते थे, इसलिए उन्होंने एनसी को बड़े पैमाने पर समर्थन दिया.
इंजीनियर राशिद का जादू नहीं चला
लोकसभा चुनावों में प्रभावशाली प्रदर्शन करने वाले इंजीनियर राशिद इस बार अपनी सियासी पकड़ को मजबूत नहीं कर पाए. नेशनल कॉन्फ्रेंस ने उन्हें बीजेपी के प्रॉक्सी उम्मीदवार के रूप में पेश कर दिया, जिससे राशिद को बड़ा नुकसान हुआ. एनसी का यह मास्टरस्ट्रोक काम कर गया और जो वोट बंट सकते थे, वो एनसी की झोली में चले गए. जम्मू के हिंदू बहुल क्षेत्रों में बीजेपी ने मजबूत उपस्थिति दर्ज की, लेकिन पीर पंजाल और चिनाब घाटी जैसे मिश्रित हिंदू-मुस्लिम आबादी वाले इलाकों में नेशनल कॉन्फ्रेंस ने बेहतरीन प्रदर्शन किया. इन क्षेत्रों में पहले कांग्रेस का प्रभाव था, लेकिन इस बार पार्टी मतदाताओं को अपनी ओर खींचने में नाकाम रही, जिसका सीधा फायदा एनसी को हुआ.