जो गए वो नहीं लौटे, लौटा तो बस ग्लोबल नाम…गिरमिटिया मजदूरों की अनकही कहानी
सुंदर सुभूमि भैया भारत के देसवा से
मोरे प्राण बसे हिम-खोह रे बटोहिया
एक द्वार घेरे रामा, हिम-कोतवलवा से
तीन द्वार सिंधु घहरावे रे बटोहिया
जाऊं-जाऊं भैया रे बटोही हिंद देखी आऊं
जहवां कुहुकी कोइली गावे रे बटोहिया…
बुद्धदेव पृथु बिक्रमार्जुन शिवाजी के
फिरी-फिरी हिय सुध आवे रे बटोहिया
अपर प्रदेस-देस सुभग सुघर बेस
मोरे हिंद जग के निचोड़ रे बटोहिया,
सुंदर सुभूमि भैया भारत के भूमि जेहि
जन रघुबीर सिर नावे रे बटोहिया
अगर आप भोजपुरी नहीं भी समझते तो भी इन पंक्तियों का भाव आपको भीतर तक छू जाएगा. 1912 में बाबू रघुवीर नारायण ने इसकी रचना की थी, यह मॉरीशस, फिजी, त्रिनिदाद, सूरीनाम, गुयाना जैसे देशों में बसे उन गिरमिटिया मजदूरों की गाथा है, जिनकी आवाज़ ने भारतीय प्रवासियों के संघर्ष और समर्पण को अभिव्यक्त किया. यह उनके दिलों की पुकार था, जो अपने वतन से दूर, अनजानी ज़मीन पर अपनी तकदीर तलाशने गए थे.
यह केवल एक गीत नहीं था, बल्कि एक पूरी कहानी थी, उस समय की, जब अंग्रेजों के शासन में बिहार और पूर्वांचल के युवाओं को अपना घर छोड़कर विदेशों में काम करने के लिए भेजा गया था. ये ‘गिरमिटिया’ मजदूर थे, जो अपना भविष्य बनाने के सपने लेकर विदेशों की ओर रवाना हुए थे, लेकिन जिस रास्ते पर उन्होंने कदम रखा, वह उतना आसान नहीं था. बिहार, उत्तर प्रदेश और बंगाल के मजदूर धोखेबाज अंग्रेजों की चाल में फंसकर अपनी मातृभूमि से दूर चले गए.
इस संघर्ष की जड़ें गहरी हैं, और ये उसी समय की बात है जब अंग्रेजों ने भारतीयों को विदेशों में भेजने का सिलसिला शुरू किया. 1833 में दास प्रथा के खात्मे के बाद यूरोप को श्रम की आवश्यकता महसूस हुई. अंग्रेजों ने भारत की बड़ी आबादी को मजदूरी के लिए अपने जाल में फंसाया. इसके लिए अंग्रेजों ने एक चाल चली, अनुबंद वाला. जिसे ‘गिरमिटिया’ कहा गया और जिनका इस समझौते में फंसकर विदेश जाने का इतिहास रहा, उन्हें ‘गिरमिटिया’ मजदूर कहा गया.
गिरमिटिया मजदूरों का संघर्ष
आपके मन में सवाल उठ रहा होगा कि दशकों पुरानी बातें आज क्यों? दरअसल, प्रवासी भारतीय दिवस का आयोजन हर साल 9 जनवरी को भारत में होता है. यह दिन भारतीय समुदाय के उन लोगों को समर्पित है जिन्होंने विदेशों में बसे होते हुए भी अपनी जड़ों से जुड़े रहकर देश की गरिमा और समृद्धि में योगदान दिया है. इस दिन को मनाने की परंपरा 2003 से शुरू हुई थी, लेकिन इसकी कहानी उससे कहीं पहले की है. दरअसल, यह दिन न केवल भारत में बल्कि दुनियाभर में बसे भारतीयों के संघर्ष, उनके सपनों और उनके प्रयासों की एक शानदार गाथा को याद करने का मौका है.
पहला गिरमिटिया
हमारे इतिहास में एक ऐसा दौर भी था जब ब्रिटिश साम्राज्य ने भारत के गरीबों और मजदूरों को एक आकर्षक ऑफर दिया था. यह प्रस्ताव था ‘गिरमिटिया’ अनुबंध. आज से लगभग 200 साल पहले, 1833 में जब यूरोप में दास प्रथा का अंत हुआ, तब ब्रिटेन को अपनी कॉलोनियों में काम करने के लिए भारी संख्या में मजदूरों की जरूरत पड़ी. ऐसे में गुलामी के शिकंजे में फंसे भारत से मजदूरों को खींचकर विदेश भेजने का सिलसिला शुरू हुआ.
सिर्फ एक कानूनी अनुबंध ही नहीं था, बल्कि यह था ब्रिटिश साम्राज्य का एक गहरा जाल, जिसमें गरीब भारतीयों को फंसाकर उन्हें दूर-दूर के देशों में मजदूरी के लिए भेजा जाता था. इसे ‘गिरमिटिया मजदूरी’ कहा गया. यह समझौता इतना कठोर था कि मजदूरों को कोई सम्मान नहीं मिलता था, वे कठिन परिस्थितियों में काम करने के लिए मजबूर थे, और उनका घर लौटना भी नामुमकिन था.
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गिरमिटिया मजदूरों की कठिन यात्रा
कहानी की शुरुआत होती है उन मेहनतकश श्रमिकों से जिनका सपना था अपने परिवार को बेहतर जीवन देने का. उन्होंने अपनी जड़ों को छोड़कर उन जहाजों में यात्रा की जो कभी उनके सपनों को उड़ान देने का रास्ता बनने वाले थे, लेकिन यह यात्रा उन्हें ग़मगीन मंजिल पर ले गई. एक गिरमिटिया मजदूर की यात्रा सिर्फ लंबी नहीं थी, बल्कि घातक भी थी. जहाजों में महामारी तक फैल जाती थी और कई मजदूरों की मौत हो जाती थी.
भारत से निकले ये मजदूर बेगाने देशों में गन्ने के खेतों में, रेल पटरियों पर और फैक्टरियों में काम करने लगे. यात्रा के दौरान उन्होंने अपनी संस्कृति और धार्मिक विश्वासों को अपने साथ रखा. अपने साथ लाए गए श्रीरामचरितमानस, हनुमान चालीसा, देवी-देवताओं के चित्र और सिंदूर-टिकुली के माध्यम से वे अपनी मातृभूमि से मानसिक रूप से जुड़े रहे.
जब गिरमिटिया मजदूरों ने विदेशी ज़मीन पर पांव रखा, तो उनका जीवन उतना ही कठिन था जितना उनके लिए पहले वादे किए गए थे. गन्ने के खेतों में काम करना, महंगे और कठिन श्रम के बाद भी उनके पास कोई सामाजिक अधिकार नहीं था. लेकिन इन कठिन परिस्थितियों में भी इन मजदूरों ने अपनी पहचान बनाई. धीरे-धीरे उन्होंने अपनी मेहनत और निष्ठा से उस भूमि पर अपनी संस्कृति की नींव रखी. उन्होंने विभिन्न देशों में सामाजिक और सांस्कृतिक नेटवर्क बनाए, जिसमें रामायण, महाभारत, और गीता के श्लोक उनका मार्गदर्शन बने.
समय के साथ-साथ गिरमिटिया मजदूरों ने खुद को सिर्फ श्रमिकों के रूप में नहीं देखा, बल्कि उन्होंने अपने जीवन को बेहतर बनाने के लिए वहां के समाज में अपनी भूमिका निभाई. यही लोग थे जिन्होंने विदेशों में भारतीयता का बीजारोपण किया और वहां की सामाजिक-सांस्कृतिक धारा में खुद को एक मजबूत स्थिति में खड़ा किया.
महात्मा गांधी और गिरमिटिया मजदूर
महात्मा गांधी ने जब अफ्रीका में गिरमिटिया मजदूरों की हालत देखी, तो उन्होंने इसे अपना कर्तव्य समझा कि वे इन मजदूरों के लिए आवाज उठाएं. गांधी जी ने दक्षिण अफ्रीका में अपने आंदोलन की शुरुआत की और गिरमिटिया मजदूरों की स्थितियों में सुधार लाने के लिए आवाज उठाई. उनका यह संघर्ष न सिर्फ भारतीय मजदूरों के अधिकारों के लिए था, बल्कि यह पूरी दुनिया में भारतीय समुदाय की स्थिति को बेहतर बनाने की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम साबित हुआ.
गांधी जी की जीत ने एक नई उम्मीद जगाई. उनके आंदोलन ने गिरमिटिया मजदूरों को न केवल उनकी जगह दिलवाई, बल्कि उन्होंने समाज में समानता की दिशा में भी कदम बढ़ाए.
प्रवासी भारतीयों की सफलता की कहानी
आज के समय में प्रवासी भारतीयों की भूमिका दुनिया भर में महत्वपूर्ण हो गई है. अब प्रवासी भारतीयों का प्रभाव हर क्षेत्र में है. चाहे वह व्यवसाय हो, राजनीति हो या विज्ञान, प्रवासी भारतीय हर क्षेत्र में अपनी सफलता का परचम लहरा रहे हैं. सुंदर पिचाई (Google), सत्य नडेला (Microsoft), इंद्रा नूई (PepsiCo), और राजीव सुरी (Microsoft)—यह सभी नाम ऐसे हैं जो यह सिद्ध करते हैं कि भारतीय जब एक ठान लेते हैं तो वह दुनिया की किसी भी मुश्किल को पार कर सकते हैं. आज भारतीय प्रवासी पूरी दुनिया में अपनी बुद्धिमत्ता और कार्यक्षमता के लिए सम्मानित हैं.
9 जनवरी और प्रवासी भारतीय दिवस
9 जनवरी, 1915 को महात्मा गांधी दक्षिण अफ्रीका से भारत लौटे थे, और यही तारीख प्रवासी भारतीय दिवस के रूप में मनाई जाती है. इस दिन का उद्देश्य न केवल प्रवासी भारतीयों की समस्याओं और उनके संघर्षों को याद करना है, बल्कि उनकी उपलब्धियों का भी सम्मान करना है.
प्रवासी भारतीयों का ग्लोबल नेटवर्क
आज के दौर में प्रवासी भारतीयों की संख्या 3.5 करोड़ से अधिक है, और यह संख्या लगातार बढ़ रही है. भारत से लेकर अमेरिका, यूएई, कनाडा, ब्रिटेन, मलेशिया, और अन्य देशों में भारतीयों का व्यापक नेटवर्क है. इन देशों में भारतीय पेशेवरों की कामयाबी ने भारत के वैश्विक स्तर पर सम्मान को और बढ़ाया है.
इन भारतीयों ने केवल अपने लिए नहीं, बल्कि भारत के लिए भी कई सकारात्मक बदलाव लाए हैं. उनकी मेहनत, उनकी सफलता और उनके द्वारा भेजे गए पैसे (जो भारत के विदेशी मुद्रा भंडार में एक बड़ा योगदान देते हैं) ने भारत की आर्थिक और सामाजिक स्थिति को मजबूत किया है.