न झंडा न शोर और न ही ढोल की थाप…पहले नेता घर-घर जाते थे अब घर से हो रहा प्रचार, सोशल मीडिया ने कैसे बदला ट्रेंड?

जानकारों की मानें तो यह चलन 2003-4 में शुरू हुआ. यह चुनाव के सामान जैसे झंडे, बैनर, बैज और ऐसी अन्य वस्तुओं की मांग में गिरावट की शुरुआत थी.
प्रतीकात्मक तस्वीर

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Lok Sabha Election 2024: बैनर, झंडे, ढोल की थाप और इन सबके बीच चुनाव प्रचार करने वाले उम्मीदवारों के पारंपरिक तरीके इस बार खत्म हो गए हैं और पार्टियां चुनाव प्रचार के लिए सोशल मीडिया का सहारा ले रही हैं. ढोल कलाकार मंगनू राम (जो की दरभंगा जिला के रहने वाले हैं) बेसब्री से चुनाव का इंतजार कर रहे थे, लेकिन इस बार ढोल की मांग बेहद कम होने के कारण उनकी इच्छाएं धरी की धरी रह गईं. झंडे, बैनर, ढोल और अन्य वस्तुओं की भी यही स्थिति है, जिनकी मांग इस चुनाव में लगभग 80 प्रतिशत तक गिर गई है.

दो चरण का मतदान खत्म हो चुका है, लेकिन उम्मीदवार न तो नुक्कड़ नाटक करते-कराते दिख रहे हैं और न ही ढोल के साथ घर-घर जा रहे हैं. कारण, वे अब सोशल मीडिया के माध्यम से मतदाताओं से बातचीत कर रहे हैं.

साल 2003 के बाद शुरु हुआ है यह ट्रेंड

जानकारों की मानें तो यह चलन 2003-4 में शुरू हुआ. यह चुनाव के सामान जैसे झंडे, बैनर, बैज और ऐसी अन्य वस्तुओं की मांग में गिरावट की शुरुआत थी. चुनावों के दौरान उम्मीदवारों और राजनीतिक दलों को अलग-अलग वस्तुओं की आपूर्ति करने वाले लोगों का कहना है, “हर साल लगभग 10-15 प्रतिशत मांग कम हो गई है. एक समय था जब उम्मीदवार ऐसी वस्तुओं की खरीद पर व्यक्तिगत रूप से 5-7 लाख रुपये खर्च करते थे. लेकिन इस बार के लोकसभा चुनाव में यह घटकर 50,000 रुपये से 1 लाख रुपये तक ही सीमित रह गया है.  इसका पूरा श्रेय सोशल मीडिया को जाता है, जहां एक व्यक्ति कम पैसे का उपयोग करके अधिक लोगों तक पहुंच सकता है. राजनीतिक पार्टियां और उम्मीदवार लोगों के घरों के दरवाजे तक पहुंचने के बजाय अब सीधे उनके स्मार्टफोन के जरिए उनके दिल और दिमाग तक पहुंच बना रहे हैं.

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स्वतंत्रता दिवस और गणतंत्र दिवस पर बिकते हैं ज्यादा झंडे!

अगर इस बार के चुनावों को देखें तो इसकी तुलना में व्यापारी स्वतंत्रता दिवस और गणतंत्र दिवस के दौरान अधिक झंडे बेचते नजर आ जाते हैं. आप मौजूदा अभियान के दौरान विभिन्न राजनीतिक दलों के झंडे की तुलना में 15 अगस्त और 26 जनवरी के जश्न के दौरान अधिक तिरंगे देख सकते हैं. लाउडस्पीकरों और बैनरों के साथ भी ऐसा ही है. मुक्कड़ रैलियों पर मीम्स और वॉयस मैसेज का कब्जा हो गया है.उम्मीदवार सोशल मीडिया को प्राथमिकता दे रहे हैं राजनीतिक पार्टियों ने मीम्स, वॉयस मैसेज और वीडियो बनाने के लिए पेशेवरों को काम पर रखा है.” इसके पीछे तर्क दिया जाता है कि सोशल मीडिया पर प्रचार करना आसान है क्योंकि कोई भी कुछ भी कम समय में वायरल कर सकता है.

पहले आम चुनाव में कैसे हुआ था प्रचार?

आजाद भारत में पहला आम चुनाव 1951-52 में हुआ था. इस समय भी खूब जमकर प्रचार हुआ था. उस समय आज की तरह सुविधाएं और संसाधन मौजूद नहीं थे. पार्टियों और उसके उम्मीदवारों को चुनाव प्रचार करने के लिए कई माध्यम अपनाने पढ़ते थे. वे चुनावी जनसभा और नुक्कड़ सभाओं की मदद लेते थे. नुक्कड़ सभाओं के लिए बाजार के आसपास के इलाकों को देखा जाता था. यहां पर लोग आसानी से मिल जाते थे और नेताओं की बात को भी गौर से सुनते थे. इतना ही नहीं, गांव में पहले नेता बैलगाड़ी से मतदाताओं से पहुंचते थे. इसके बाद धीरे-धीरे गाड़ियों से जाने लगे. लेकिन साल 2024 में यह ट्रेंड बदल गया है. अब नेता मतदाताओं के घर भी नहीं पहुंचते हैं. सीधे उनके स्मार्टफोन पर दिखते हैं.

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