MP News: दिग्विजय के आने से राजगढ़ में फंसा पेंच, शिवराज की राह आसान, सिंधिया के लिए किस करवट बैठेगा ऊंट?
मध्यप्रदेश के दो पूर्व मुख्यमंत्री भाजपा से शिवराज सिंह चौहान और कांग्रेस से दिग्विजय सिंह दशकों बाद अपने गढ़ लौटे हैं.वहीं ज्योतिरादित्य सिंधिया गुना शिवपुरी लोकसभा सीट से मैदान में है.
Lok Sabha Election 2024: एक तरफ जहां मध्यप्रदेश के दो पूर्व मुख्यमंत्री भाजपा से शिवराज सिंह चौहान, और कांग्रेस से दिग्विजय सिंह दशकों बाद अपने गढ़ लौटे हैं लोकसभा का चुनाव लड़ने के लिए तो वहीं कांग्रेस से भाजपा में शामिल हो चुके ज्योतिरादित्य सिंधिया अपनी खोई हुई सीट पाने के लिए जद्दोजहत कर रहे हैं. हालांकि एक तरफ भाजपा चुनावों में धार्मिक ध्रुवीकरण के रथ पर सवार है वहीं कांग्रेस अभी भी अपने दल बल को साधने में लगी हुई है.
यह कहते हुए कि दोनों ही प्रमुख पार्टियां इस चुनाव में सब कुछ झोंकने के लिए तैयार हैं यह कहना भी ज़रूरी हो जाता है कि भाजपा सबकुछ से कुछ ज्यादा झोंकने में लगी हुई है तो वहीं कांग्रेस अभी भी ऊहापोह की स्थिति में दिखती है. जिसका ताजा उदाहरण इंदौर से कांग्रेस प्रत्याशी अक्षय कांति बम का नामांकन वापस लेना है. खैर बम से आगे बढ़ेंगे तो पाएंगे कि विदिशा, राजगढ़ और गुना में स्थितियां बहुत बदली हुई हैं.
सबसे पहले बात करते हैं राजगढ़ की. वो इसलिए क्योंकि कांग्रेस के लिए इस चरण में यही सीट सबसे ज्यादा आशाजनक है.
दिग्विजय सिंह और राजगढ़, एक पुराना और अच्छा रिश्ता
कहते हैं इंसान अपनी धरती, अपनी मां और अपने पड़ोसी नहीं भूलता और इसी सूची में शामिल है इंसान का अपने राजनीतिक काल में पहले चुनावों का जीतना. 63 वर्षीय कैलाश दांगी, पेशे से प्राइवेट नौकरी से रिटायर्ड कर्मचारी हैं, कहते हैं कि दिग्विजय सिंह से स्थानीय लोगों का पुराना संबंध है और पुराने लोग संबंधों को निभाते हैं.
“हम लोगों ने राजा साहब को बहुत शुरुआत से देखा है, उनके साथ एक आत्मीयता है, जैसे पुराने लोगों को अपने घरों से अपने खेतों से होती थी. ये उनका आखिरी चुनाव हो सकता है, ऐसे में अपने बीच के आदमी को जिस से संबंध भी अच्छे हों उसका साथ दिया जरूरी है,”.
कैलाश अपनी बात आगे बढ़ाते हुए कहते हैं कि “वैसे भी रोडमल नागर का स्थानीय लोगों से कुछ खास रिश्ता नहीं है. अब तक के दोनों चुनाव वो भाजपा के संगठन और मोदी जी के चेहरे के दम पर जीतते रहे हैं ऐसे में इस बार घर के आदमी पर विश्वास जताएंगे”.
दिग्विजय सिंह लगभग तीन दशकों के बाद चुनाव लड़ने पहुंचे हैं और जनता से बातचीत के दौरान वो अपनी इस दूरी के लिए माफी भी मांगते दिखे. राजगढ़ लोकसभा सीट के अंतर्गत आठ विधानसभा सीटों में से कांग्रेस सिर्फ एक राघौगढ़ सीट जहां से दिग्विजय के पुत्र जयवर्धन सिंह लड़े थे वही जीतने में सफल रही. सोचिए कि 1984 में दिग्विजय सिंह पहली बार यहीं से चुनाव लड़कर लोकसभा पहुंचे थे, ये बात अलग है कि अगले ही चुनाव में उन्हें हार का मुंह देखना पड़ा था. दिग्विजय सिंह ने 1991में दोबारा राजगढ़ सीट अपने नाम की थी.
दिग्विजय के गढ़ में राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ ने मौका पाकर अच्छी खासी सेंध मारी की, इतनी कि पिछले विधानसभा में कांग्रेस मात्र एक सीट जीत पाई थी. 1993 से 2003 तक मुख्यमंत्री कार्यकाल और फिर उसके बाद अपनी प्रतिज्ञा, 10 वर्षों से चुनाव से दूर रहने की, के चलते भाजपा और आरएसएस को एक लंबा समय मिला अपनी जड़ें मजबूत करने के लिए. राजगढ़ के एक अन्य स्थानीय व्यक्ति ने विस्तार न्यूज से बात करते हुए कहा कि रोडमल नागर के लिए रास्ते बहुत आसान होते लेकिन दिग्विजय सिंह के चलते सारे गुणा गणित गड़बड़ हो गए हैं. “बहुत आसान होता नागर जी के लिए, सिर्फ एक ही नाम था जो दिक्कतें कर सकता था और कांग्रेस ने वही नाम ले लिया है. दिग्विजय सिंह के हर गांव में दोस्त यार हैं, हर गांव में वो लोगों को नाम से जानते हैं और लोग उनको. एक बात और है कि रोडमल नागर 10 वर्षों से सांसद हैं लेकिन क्षेत्र में उनकी उपलब्धता बहुत कम रही है और इस बार सबसे ज्यादा चोट उनको इसी कारण होगी”.
जहां एक तरफ राजगढ़ में दिग्गविजय सिंह ने पेंच फंसा दिया है वहीं राजगढ़ से लगभग 150 किलोमीटर दूर विदिशा लोकसभा सीट में दो दशक बाद घर लौटे शिवराज सिंह चौहान के लिए रास्ता तुलनात्मक रूप से आसान दिखाई दे रही है.
शिवराज की विदिशा वापसी और दिल्ली रास्ता दोनों आसान
पूर्व मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान को बीते दिसंबर एक बड़ा झटका लगा जिसका आभास शायद उन्हें और मध्यप्रदेश के लोगों को कुछ महीने पहले ही हो गया था. लेकिन कुर्सी के जाने के गम तो होता ही है, बावजूद इसके चौहान ने अगले ही दिन से लोकसभा में 29 सीटों की माला मोदी जी को पहनाने का नारा दे दिया था. विदिशा से चुनाव लड़ रहे शिवराज सिंह चौहान को विदिशा लोकसभा सीट स्वयं अटल बिहारी बाजपयी के रिप्लेसेंट के रूप में मिली थी. 1967 में बनाई गई विदिशा सीट पर जनसंघ या तो भाजपा का ही कब्ज़ा रहा है सिवाय दो बार 1980 और 1984 में जब कांग्रेस के प्रताप भानु शर्मा को जनता ने यहां से चुनकर लोकसभा भेजा. इस बार फिर कांग्रेस ने पुराने नेता और विदिशा पर जीत हासिल करने वाले इकलौते कांग्रेसी नेता प्रताप भानु को शर्मा को मैदान में खड़ा किया है.
54 वर्षीय रामचंद्र गुप्ता कहते हैं कि कांग्रेस ने पुराने नेता को खड़ा तो कर दिया लेकिन ये नहीं देखा कि नेता इतना पुराना है कि लोग शायद भूल चुके होंगे. “शर्मा जी ने निसंदेह दो बार चुनाव जीता है, लेकिन वो आज से 40 साल पहले की बात है. आज का युवा जो इंस्टाग्राम और डिजिटल प्लेटफॉर्म पर शिवराज जी की मामा वाली छवि को रोज़ 5 बार देख रहा है वो शर्मा जी से अब कनेक्ट कैसे होगा?”
गुप्ता जी की इस बात पे बगल में बैठे एक युवा ने हामी भरते हुए कहा कि शिवराज जी से युवा ही नहीं पुराने लोग भी जुड़ाव रखते हैं और उनका जनमानस के बीच में अच्छा मान है. “मामा जी जनता के आदमी हैं, उनका लोगों से जुड़ने का तरीका बहुत अलग है. इसके अलावा उनकी योजनाओं ने भी बहुत मदद की है. मेरी मम्मी को हर महीने 1000 रुपए खाते में आते हैं ये तो उन्हीं का दिया हुआ है ना,” युवा ने बताया.
युवा यहां पर लाडली बहना योजना का हवाला दे रहा है जिसे शिवराज सिंह चौहान ने विधानसभा चुनावों के पहले लॉन्च किया था. विदिशा लोकसभा सीट से शिवराज सिंह चौहान 1991 से 2004 तक पांच बार सांसद चुने जा चुके हैं. और एक बार फिर अपनी पुरानी जनता के बीच पहुंचे हैं, जहां कांग्रेस ने शिवराज के खिलाफ पुराना लेकिन शायद कमज़ोर कैंडिडेट खड़ा कर दिया है. विदिशा से वापस मालवा की धरती की ओर गाड़ी मोड़ें तो पहुंचेंगे गुना, जहां ज्योतिरादित्य सिंधिया अपनी खोई हुई ज़मीन वापस पाने की चाहत के साथ चुनाव में खड़े हुए हैं.
सिंधिया के सामने खोई ज़मीन पाने की चुनौती
ज्योतिरादित्य सिंधिया के परिवार का गुना लोकसभा सीट पर वर्चस्व रहा है. 1957 में यहां हुए पहले चुनाव में विजयराजे सिंधिया ने जीत हासिल की थी जिसके बाद 1971 में उनके बेटे माधवराव सिंधिया ने जनसंघ के टिकट पर चुनाव लड़ा और यहां पहला चुनाव जीता. वर्ष 2001 में माधवराव की मृत्यु के बाद, उनके बेटे ज्योतिरादित्य ने 2002 में हुए उपचुनाव जीत हासिल की थी.
विरासत को 2019 लोकसभा चुनावों में शिकस्त दी सिंधिया के ही साथी केपी यादव ने, जिन्होंने भाजपा की टिकट पर चुनाव लडा था. बाद में सिंधिया कांग्रेस छोड़कर भाजपा में शामिल हो गए और फिर इस बार भाजपा के टिकट पर चुनाव लड़ रहे हैं. 32 वर्षीय अंजू कुशवाहा कहती हैं कि पिछली बार यादव समाज एकजुट हो गया था और भाजपा की टीम के सहयोग से महाराज को हार झेलनी पड़ी थी, लेकिन इस बार हवा और मैदानी स्थिति दोनों बदली है. “पिछले बार तो यादव समाज ने एकजुट होकर महाराज को हरा दिया था, इसमें भाजपा ने भी खूब मेहनत की थी. इस बार लेकिन महाराज खुद ही भाजपा के साथ हैं तो इस बार उन्हें दिक्कत नहीं होनी चाहिए”.
कांग्रेस ने इस बार भाजपा की पिछली चाल को कॉपी करते हुए गुना लोकसभा सीट से एक यादव, राव यादवेंद्र सिंह को सिंधिया के खिलाफ खड़ा किया है. ये देखने लायक होगा कि भाजपा की नकल कांग्रेस को कितना फायदा पहुंचाती है. कल शाम तक इन तीनों दिग्गजों की रणनीति का असर, इनका लोगों से संबंध, और इनकी किस्मत सब कुछ मतदान पेटी में कैद हो जाएगा.