पर्यावरणीय प्रतिबद्धता का उद्घोष करती नदी के कवि सुधीर आज़ाद की दो किताबें

दोनों किताबों में सुधीर आज़ाद ने प्रमुखता से कहा है कि भारतीय सांस्कृतिक चिंतन ही पर्यावरण संरक्षण और संवर्धन का सबसे आसान और प्रभावी मार्ग है।
sudhir azad

सुधीर आजाद

इस सदी का सबसे बड़ा चिंतन या यह कह लीजिए कि मनुष्य के अस्तित्व का सबसे बड़ा चिंतन पर्यावरण का है। आज जब मनुष्यता असंवेदनाओं से घिरी हुई और उपभोगितावादी नजरिए से भरी है ऐसे में इस विषय की गंभीरता को कविताओं में उतारा है कवि, लेखक एवं फ़िल्मकार सुधीर आज़ाद ने।

‘नदी, मैं तुम्हें रुकने नहीं दूँगा’ नदियों पर आधारित काव्य-संग्रह के बाद पेड़ों पर आधारित काव्य-संग्रह ‘किसी मनुष्य का पेड़ हो जाना’ नदी के कवि डॉ. सुधीर आज़ाद की प्रकृति एवं पर्यावरण को मनुष्य जाति की आश्वस्ति है।

हिन्दी साहित्य में अभी तक के यह अद्भुत और इस अर्थ में अद्वितीय काव्य संग्रह हैं जिनमें पहले संग्रह ‘नदी, मैं तुम्हें रुकने नहीं दूँगा’ की कविताएं नदी और दूसरे संग्रह ‘किसी मनुष्य का पेड़ हो जाना’ की कविताएँ पेड़ों पर आधारित हैं। यह सुधीर आज़ाद के लेखन को विशिष्ट बनाता है।

‘नदी के कवि’ ने नदी के सम्पूर्ण संदर्भों को खासतौर पर पर्यावरण चिंतन एवं संरक्षण पूरी तथ्यात्मकता के साथ प्रस्तुत किया है। एवं साथ भी कविताओं का प्रवाह मन से साथ उतार-चढ़ाव करता हुआ बढ़ता है। इस किताब के बारे में सुधीर आज़ाद कहते हैं कि – ‘ नदी का हमारे आसपास से जाना हमारी मनुष्यता का खोते जाना है।’

‘कब्रगाह’ कविता में उनहीने इस त्रासदी को चेतावनी के स्वर में कहा है-

‘यदि नई बस्तियों के निर्माण की शर्त
नदी और पेड़ हैं
तो हम
नई बस्तियां नहीं
नई पीढ़ी के लिए कब्रगाह बनाना रहे हैं।’

‘किसी मनुष्य का पेड़ हो जाना’ डॉ. सुधीर आज़ाद का पेड़ों पर आधारित काव्य-संग्रह है जिसकी सारी कविताएँ पेड़ों पर आधारित हैं। इस किताब की प्रत्येक कविता पेड़ों को एक नए दृष्टिकोण से देखने, समझने और अनुभूत करने की संभावनाओं से भारी हुई है।

किताब के आत्मकथ्य में सुधीर आज़ाद ने लिखा है कि – ‘‘किसी मनुष्य का पेड़ हो जाना’ में मैं स्पष्ट रूप से यह कहना चाहता हूँ कि प्रकृति संरक्षण का विचार हमारी जीवनशैली में समाहित होना चाहिए। हमें अपनी नयी पीढ़ी को पेड़, प्रकृति और पर्यावरण के प्रति संवेदनशील बनाना होगा। संवेदनाओं के इसी संबंध से हम अपनी प्रकृति को उसके सुंदरतम रूप में वापस ला सकेंगे।‘

इस संग्रह की कविताओं में पेड़ों का प्राकृतिक, दार्शनिक, आध्यात्मिक, जैविक एवं सामाजिक संदर्भ तो है ही साथ ही मनुष्य के पर्यावरणीय कर्तव्यबोध की प्रतिबद्धता का उद्घोष भी है; जो इस बात को प्रतिध्वनित करता है कि मनुष्य की मनुष्यता तब तक ही बची रह सकती है जब तक पेड़ बचे रहेंगे।

‘पेड़ और मनुष्यता’ एवं ‘मनुष्य’ कविताओं इसी भाव की अभिव्यक्ति है-

‘पेड़ और मनुष्यता’
पेड़ों को बचाना
मनुष्यता को बचाना है
और मनुष्यता का बच जाना ही
ब्रम्हांड का कल है।

मनुष्य!

‘जंगल के कानून’ से
नहीं बच सकते जंगल
जंगल बचाने के लिए
हमें फिर से मनुष्य बनना होगा!

‘क़ब्रगाह!’ नामक कविता में सुधीर आज़ाद आज को चेताते हैं कि पेड़ों के कटने की शर्त में सारे निर्माण व्यर्थ हैं।

‘नयी बस्तियों की बड़ी-बड़ी बिल्डिंग्स
और वहाँ बानए जा रहे नए मकानों के निर्माण की शर्त
यदि पेड़ और खेत हैं
तो हम
आने वाली नस्लों की क़ब्रगाह बना रहे हैं
नई बस्तियाँ नहीं।’

सुधीर आज़ाद की कविताओं का सबसे बेहतरीन पहलू उनमें मौजूद साफ़गोई और सीधे तरीके से अपनी बात कहना है। वे बड़े-बड़े शब्दों और आडंबरपूर्ण भाषा से परहेज करते हैं और बहुत अर्थपूर्ण और महत्त्वपूर्ण बात को सरलता से कहते हैं। ‘अपराध’ नामक कविता इसी पत्र एक प्रहार करती हुई प्रस्तुत होती है।

‘कागज़ बन गए कुछ पेड़ों पर
पेड़ बचाने के प्रण को लेकर
पूरी प्रतिबद्धता के साथ
बहुत सख्त कानून बनाया गया है
जिसमें गहरी स्याही से लिखा गया है
कि
‘पेड़ों को काटना गंभीर अपराध है’
और फिर उस कानून को
हर एक जंगल की रक्षा के लिए
गेट बन गए कुछ पेड़ों पर
चस्पा किया गया है।’

‘फ़ातेहा!’ नामक कविता उनके भीतर के उस संवेदनशील इंसान का दर्द बयान करती है जो पेड़ों की पीड़ा को महसूस करता है और आज के अंधाधुंध विकास से आहत है।

‘इस शहर की हज़ारों इमारतों के नीचे
लाखों पेड़ दफ़न हैं
और इन बड़ी-बड़ी सड़कों
के नीचे दफ़न हैं कई नदियाँ
यह शहर दरख़्तों और नदियों का कब्रिस्तान है
मैं इस शहर में फ़ातेहा पढ़ने आया हूँ।’

सुधीर आज़ाद ने इस संग्रह में बहुत ही गंभीरता से अपने कविकर्म की ज़िम्मेदारियों को निभाते हुए व्यवस्था एवं समाज को अपने कर्त्तव्यों एवं उत्तरदायित्वों के दिखावों को आईना भी दिखाया है। ‘खाली जगह!’ कविता इसका सटीक उदाहरण है-

‘पर्यावरण बचाओ’ के इस नारे के
बुलंद उद्घोष में
‘पर्यावरण’ और ‘बचाओ’ के बीच
की खाली जगह पर
हमें पेड़ लगाने होंगे
तब ही यह पर्यावरण बचेगा
अगर ऐसा नहीं है तो
नारों की तीव्र ध्वनि
पर्यावरण प्रदूषण के
एक अन्य कारण के सिवाय कुछ भी नहीं है।

सुधीर आज़ाद की कविता का सबसे बेहतरीन पहलू उनका प्रकृति को बहुत करीब से अनुभूत करना है। वे पेड़ों के कवि हैं। वे अपनी समवेदनाओं को जैसे स्वर देते हैं वह अंतस तक पहुँच जाता है। ‘पेड़ों का गिरना’ कविता में यह दर्द उभरकर आता है।

पेड़ों का गिरना!

पेड़ों के गिरने की आवाज़
इस ब्रम्हांड की सर्वाधिक पीड़ादायक ध्वनि है
और विडंबना यह है कि
यह ध्वनि बढ़ती जा रही है।

प्रकृति एवं पर्यावरण के प्रति संवेदना रखने वाले प्रत्येक व्यक्ति को यह किताब उसकी अपनी किताब लगेगी। ऐसा मेरा विश्वास है। नदी उतनी ही बची रहेगी जितनी मनुष्यता: सुधीर आज़ाद

डॉ. आज़ाद ने कहा कि यह किताब मनुष्य की नदियों को आश्वस्ति है। उन्होंने बताया कि सांस्कृतिक, आध्यात्मिक, पौराणिक, सामाजिक, पर्यावरणीय एवं आर्थिक संदर्भ लिए इस संग्रह की कविताओं में नदी का गौरवशाली अतीत, दयनीय वर्तमान एवं काँपता हुआ यथार्थ चित्रित है। लेकिन इन सब के बीच कविताओं का स्वर और संदेश पूर्णतः सकारात्मक है कि ‘नदी, मैं तुम्हें रुकने नहीं दूँगा।’ सुधीर आज़ाद कहते हैं कि यह ‘मैं’ मैं हूँ आप सब हैं।

इस पुस्तक की कामयाबी यह है कि इसका बुन्देली, बंगाली अंग्रेज़ी एवं अरेबिक में ट्रांसलेशन हो रहा है।
इस किताब की ये कुछ पंक्तियाँ ही डॉ. सुधीर आज़ाद के भीतर के एक बेहतरीन कवि से रूबरू कराने के लिए बहोत हैं –
1. ‘’संसार का सबसे सुरीला संगीत/
वो चट्टानें सुनती हैं,/
जो नदियों के पास होती हैं!’’
2. ‘’दुनिया के सबसे ख़ूबसूरत रास्ते वे हैं/
जिन रास्तों से होकर नदी गुज़रती है!/
एक नदी मेरे भीतर से भी गुज़रती है/
वह तुम हो!’’
3. ‘’सांप की तरह चलने वाली नदी /
गाय की तरह होती है /
और गाय की तरह दिखने वाला मनुष्य
सांप की तरह होता है।‘’

4. संविधान

टेम्स ने कभी गंगा को नहीं देखा
नर्मदा नहीं जानती आमेजन को
हडसन और नाइजर की तरह
वोल्गा और नील भी अपरिचित हैं
सबके भौगोलिक विन्यासों में अंतर है
इन नदियों के आसपास की सभ्यता भी
भिन्न है पृथक है कथा उनकी अपनी-अपनी

लेकिन इन सभ्यताओं में एक से मनुष्य हैं
उनका द्रष्टिकोण भी एक जैसा उपयोगितावादी
बहुरूपता लिए उनके हैं उनके चरित्र किन्तु,
एकरूप है उनका नदियों के प्रति आचरण

यही कारण है कि
सभी नदियों का दुःख एक जैसा है
उनमें बहने वाला दर्द एक एक जैसा है
एक जैसी है उनकी सिमटती हुई दुनिया
उनकी नावों का क्रंदन एक जैसा है
उनKE किनारों को सीमेंट का खौफ़
और उनका सन्नाटा एक जैसा है
अमृत बांटने वाली ये सारी नदियाँ
एक जैसा ही ज़हर पी रही हैं

जिस तरह एक जैसी है मनुष्यों की नीयत
नदियों की नियति भी एक जैसी है

मनुष्य जब समाप्त कर चुका होगा
अपनी सारी मनुष्यता
और पूरे ब्रह्माण्ड में जब एक साथ होगी रात
तब सभी नदियाँ एक-दूसरे से मिलेंगी
और
नयी सभ्यता के निर्माण का संविधान रचेंगी!
चुपचाप!

5. नदी और लड़की

एक लड़की थी गाँव में कुछ
कुछ समय पहले
उसकी माँ मर गयी थी
माँ के साथ बच्चों का बचपन भी मर जाता है
माँ के बाद
गाँव का ऐसा कोई नहीं था
जिसके सामने वह बच्ची बनी रहती
ख़ुद को भी बड़ी लगने लगी थी वह

नदी उसे अपनी तरह लगती
उसने एक दिन नदी से दोस्ती कर ली
फिर
वह पहरों उसके किनारे बैठे रहती
उसी से कहते रहती अपना सब कुछ

धीरे-धीरे सूखता गया पानी
सूखते गए आँसू
खोते गए अस्तित्त्व.

कुछ दिनों बाद
कई दिनों से गायब उस लड़की की गुमशुदगी की रिपोर्ट दर्ज़ हुई
फिर कुछ दिनों बाद
उस लड़की की नंगी देह
नदी की सूखी देह में मिली

फिर कुछ दिनों बाद
कुछ दिनों तक चर्चा रही गाँव में,
एक लड़की थी गाँव में,
एक नदी थी गाँव में.

6. नदी के घाट को रात में देखना

जब रात होती है
और कोई घाट पर नहीं होता
तब मंदिर चुपचाप
अपना सब कुछ लेकर
नदी की तह में उतर जाते हैं

जब रात होती है
और कोई घाट पर नहीं होता
सारी नावें नदी को उठाती हैं
और बच्चों की तरह दिन भर का सब कुछ बताती हैं उसे

जब रात होती है
और कोई घाट पर नहीं होता
चाँद नदी में उतरता है
जिस तरह एक सूरज दिनभर कई नदियों की लहरों में चमकता है
उसी तरह एक चाँद रात भर कई नदियों में उतरता है

जब रात होती है
और कोई घाट पर नहीं होता
तो नदी रुक जाती है और
घाट बहने लगता है

प्रेम और घाट एक जैसे बहते हैं
दोनों में वेग होता है, दोनों में प्रवाह
कितुं दोनों जहाँ हैं,
वहीं रह जाते हैं !

दोनों किताबों में सुधीर आज़ाद ने प्रमुखता से कहा है कि भारतीय सांस्कृतिक चिंतन ही पर्यावरण संरक्षण और संवर्धन का सबसे आसान और प्रभावी मार्ग है। हमारी परम्पराएं और मान्यताएं प्रकृति के प्रति आस्थाओं से भरी हैं।

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