श्रीलंका, बांग्लादेश के बाद अब नेपाल, भारत के पड़ोस में बार-बार बवाल, कहीं पर्दे के पीछे अमेरिका-चीन का ‘खेल’ तो नहीं?

नेपाल भारत और चीन के बीच एक रणनीतिक बफर है. यहां की अस्थिरता भारत के लिए सीधा खतरा है, लेकिन चीन और अमेरिका के लिए मौका. दरअसल, नेपाल में चीन ने बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव (BRI) के तहत सड़कों, रेलवे और बांधों में भारी पैसा लगाया है. 2023 तक चीन नेपाल का सबसे बड़ा निवेशक बन चुका था.
Nepal Gen-Z Protests

नेपाल में बवाल के पीछे कौन?

Nepal Gen-Z Protests: पिछले कुछ सालों में भारत के पड़ोसी देशों में मानो आग लग गई हो. बांग्लादेश में शेख हसीना को सत्ता छोड़कर भागना पड़ा, श्रीलंका में गोटाबाया राजपक्षे की कुर्सी गई, पाकिस्तान में इमरान खान को सत्ता से हटाया गया और अब नेपाल में केपी शर्मा ओली की सरकार Zen-Z के आगे घुटने टेक चुकी है. नेपाल में एक छोटा-सा सोशल मीडिया बैन ऐसा तूफान लाया कि संसद से लेकर नेताओं के घर तक आग की लपटें उठने लगीं. लेकिन सवाल यह है कि क्या यह सब सिर्फ जनता का गुस्सा है या इसके पीछे कोई बड़ा वैश्विक खेल चल रहा है? क्या चीन और अमेरिका जैसे बड़े खिलाड़ी नेपाल को अपने शतरंज का मोहरा बना रहे हैं?

नेपाल में लगी हिंसा की ‘आग’

2025 में नेपाल की सड़कों पर Gen-Z ने ऐसा बवाल मचाया कि पूरी दुनिया की नजरें काठमांडू पर टिक गईं. माजरा शुरू हुआ सरकार के सोशल मीडिया पर बैन वाले एक फैसले से. बस, फिर क्या था. नेपाल के युवा सड़कों पर उतर आए. शुरुआत में नारे लगे, “हमें हमारा सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म वापस दो.” लेकिन जल्द ही यह आंदोलन भ्रष्टाचार, बेरोजगारी और सरकार के मनमाने रवैये के खिलाफ एक ज्वालामुखी बन गया. प्रदर्शनकारी इतने गुस्से में थे कि उन्होंने संसद, सुप्रीम कोर्ट और यहां तक कि राष्ट्रपति भवन तक को निशाना बनाया. कई मंत्रियों के घरों में आग लगा दी गई. खबरें हैं कि कम से कम 22 लोग इस हिंसा में मारे गए. मारे गए लोगों में नेपाल के पूर्व प्रधानमंत्री झलनाथ खनाल की पत्नी रबी लक्ष्मी चित्रकार भी शामिल हैं.

आखिरकार, प्रधानमंत्री केपी शर्मा ओली को इस्तीफा देना पड़ा. कुछ सूत्रों का कहना है कि वे देश छोड़कर दुबई भाग गए हैं. लेकिन सवाल यह है कि क्या एक ऐप बैन इतना बड़ा हंगामा खड़ा कर सकता है या फिर इसके पीछे कोई और कहानी है?

भारत के पड़ोस में बार-बार उथल-पुथल!

नेपाल की कहानी को समझने से पहले जरा भारत के पड़ोस पर नजर डालें. पिछले कुछ सालों में हर पड़ोसी देश में कुछ न कुछ बवाल हुआ है. साल 2021 में तालिबान ने अफगानिस्तान के सत्ता पर कब्जा किया और राष्ट्रपति अशरफ गनी को देश छोड़कर भागना पड़ा.

इसके बाद, साल 2022 में आर्थिक संकट ने श्रीलंका की जनता को सड़कों पर ला दिया. लोग राष्ट्रपति भवन में घुस गए और गोटाबाया राजपक्षे को सिंगापुर भागना पड़ा. ऐसा ही कुछ बांग्लादेश में भी हुआ. पिछले साल छात्रों ने नौकरी और भ्रष्टाचार के खिलाफ आंदोलन शुरू किया, जो शेख हसीना की सरकार गिराने तक पहुंच गया. हसीना अब भारत में शरण लिए हुए हैं. पाकिस्तान का बवाल भी जगजाहिर है. 2022 में इमरान खान को अविश्वास प्रस्ताव और सड़क पर विरोध के बाद सत्ता से हटना पड़ा.

अब नेपाल की बारी. हर देश में कहानी एक जैसी लगती है…युवाओं का गुस्सा, भ्रष्टाचार के खिलाफ नारे और अचानक हिंसक हुए आंदोलन. क्या यह सब महज इत्तेफाक है या कोई बड़ा पैटर्न है? कई लोग शक की नजर से चीन और अमेरिका की ओर देख रहे हैं.

नेपाल में शतरंज का खेल?

नेपाल भारत और चीन के बीच एक रणनीतिक बफर है. यहां की अस्थिरता भारत के लिए सीधा खतरा है, लेकिन चीन और अमेरिका के लिए मौका. दरअसल, नेपाल में चीन ने बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव (BRI) के तहत सड़कों, रेलवे और बांधों में भारी पैसा लगाया है. 2023 तक चीन नेपाल का सबसे बड़ा निवेशक बन चुका था. जानकार मानते हैं कि केपी शर्मा ओली को चीन का समर्थन था. क्या चीन ने नेपाल में अस्थिरता को हवा दी ताकि भारत की सीमा पर दबाव बढ़े?
लगता तो यही है क्योंकि बांग्लादेश, श्रीलंका और मालदीव में भी चीन ने भारी निवेश किया है. इन देशों में अस्थिरता भारत को उलझाए रखती है, जिससे चीन को दक्षिण एशिया में अपनी पकड़ मजबूत करने का मौका मिलता है.

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अमेरिका का एंगल

कुछ रिपोर्ट्स के मुताबिक, अमेरिका ने नेपाल में ‘लोकतंत्र और मानवाधिकार’ के नाम पर लाखों डॉलर खर्च किए. मिसाल के तौर पर, 2024 में नेपाल में ‘फिस्कल फेडरलिज्म’ के लिए 20 मिलियन डॉलर दिए गए. क्या यह पैसा आंदोलनों को भड़काने में इस्तेमाल हुआ? अमेरिका नहीं चाहता कि चीन दक्षिण एशिया में हावी हो. नेपाल में अस्थिरता से अमेरिका को मौका मिल सकता है कि वह ‘लोकतंत्र की बहाली’ के नाम पर अपनी पकड़ बनाए. हालांकि, फिलहाल ये कहना जल्दबाजी होगी.

टाइमिंग पर उठ रहे हैं सवाल

नेपाल में आंदोलन ठीक उस वक्त शुरू हुआ, जब ओली चीन से लौटे और भारत आने की तैयारी कर रहे थे. क्या यह अमेरिका की ओर से भारत-नेपाल संबंधों को कमजोर करने की चाल थी? हालांकि बाहरी ताकतों का शक गहरा है, लेकिन नेपाल के आंदोलन की जड़ें स्थानीय हैं.

बेरोजगारी: विश्व बैंक के मुताबिक, नेपाल में बेरोजगारी दर 11-12% के आसपास है. लाखों युवा खाड़ी देशों और भारत में पलायन कर रहे हैं.

भ्रष्टाचार: ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल की रैंकिंग में नेपाल दक्षिण एशिया के सबसे भ्रष्ट देशों में शुमार है. नेताओं और अफसरों की मुनाफाखोरी ने जनता का गुस्सा भड़काया.

राजनीतिक अस्थिरता: 2008 में राजशाही खत्म होने के बाद नेपाल में 17 सालों में 14 सरकारें बदल चुकी हैं. जनता का भरोसा सिस्टम से उठ चुका है. सोशल मीडिया बैन ने बस चिंगारी का काम किया. असल में नेपाल के युवा भ्रष्टाचार, बेरोजगारी और सरकारी दमन से तंग आ चुके थे.

भारत के लिए खतरे की घंटी

नेपाल की अस्थिरता भारत के लिए सिर्फ खबर नहीं, बल्कि एक बड़ा खतरा है. भारत-नेपाल की खुली सीमा पर अशांति से तस्करी, घुसपैठ और सुरक्षा संबंधी जोखिम बढ़ सकते हैं. साथ ही, अगर नेपाल में चीन या अमेरिका की पकड़ मजबूत होती है, तो भारत का क्षेत्रीय प्रभाव कमजोर पड़ सकता है. भारत को अब कूटनीति और रणनीति के साथ इस आग को बुझाने की जरूरत है.

क्या है असल माजरा?

नेपाल में हुआ बवाल स्थानीय गुस्से और वैश्विक खेल का मिला-जुला नतीजा लगता है. भ्रष्टाचार और बेरोजगारी ने जनता को सड़कों पर उतारा, लेकिन आंदोलन की रफ्तार और हिंसा ने कई सवाल खड़े किए. क्या यह सब अपने आप हुआ या इसके पीछे चीन और अमेरिका जैसे बड़े खिलाड़ियों का कोई दांव था? ठोस सबूत तो नहीं, लेकिन संदेह गहरा है. चीन को भारत को घेरने का मौका चाहिए और अमेरिका को चीन के प्रभाव को रोकने का. नेपाल इस शतरंज की बिसात पर एक छोटा-सा मोहरा हो सकता है. लेकिन असली सवाल यह है कि क्या नेपाल की जनता अपने हक की लड़ाई लड़ रही है या अनजाने में किसी और के खेल का हिस्सा बन रही है?

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