जब आखिरी बार हुई थी जाति जनगणना, तब ब्राह्मणों से ज्यादा पढ़े लिखे थे इस जाति के लोग
प्रतीकात्मक तस्वीर
Caste Census: भारत में जातिगत जनगणना की बात आजकल फिर से सुर्खियों में है. विपक्षी दलों की लंबे समय से चली आ रही मांग को आखिरकार सरकार ने मान लिया है, और 2027 में होने वाली जनगणना में जातियों की गिनती भी शामिल होगी. लेकिन क्या आप जानते हैं कि भारत में आखिरी बार जातिगत जनगणना 1931 में हुई थी, जब देश में ब्रिटिश राज था? उस दौर की जनगणना ने न सिर्फ जातियों की संख्या बताई, बल्कि उनके सामाजिक और शैक्षिक स्तर की भी एक रोचक तस्वीर पेश की. आइए, उस पुरानी कहानी को जानते हैं.
साक्षरता का अनोखा लेखा-जोखा
1931 में ब्रिटिश सरकार ने भारत की आबादी का दशकीय सर्वे किया था, जिसमें जातियों के आधार पर साक्षरता, पेशा और सामाजिक स्थिति जैसे कई पहलुओं को दर्ज किया गया. उस समय की जनगणना ने बताया कि भारत में शिक्षा का स्तर जातियों के बीच कितना अलग-अलग था. कुछ जातियां पढ़ाई-लिखाई में बहुत आगे थीं, तो कुछ बेहद पीछे.
सबसे ज्यादा साक्षरता दर वाली जातियों में बंगाल के बैद्य, कई राज्यों में बसे कायस्थ, और केरल के नायर सबसे ऊपर थे. पारंपरिक रूप से चिकित्सा का काम करने वाले बैद्य जाति में 78.2% पुरुष और 48.6% महिलाएं साक्षर थीं. लेखन और प्रशासनिक कामों के लिए मशहूर कायस्थ में 60.7% पुरुष और 19.1% महिलाएं पढ़ी-लिखी थीं. वहीं, मालाबार क्षेत्र के नायर में 60.3% पुरुष और 27.6% महिलाएं साक्षर थीं. इन जातियों की शैक्षिक प्रगति का कारण था उनका पेशा और सामाजिक ढांचा, जो शिक्षा को बढ़ावा देता था.
लेकिन चौंकाने वाली बात यह थी कि ब्राह्मण, जिन्हें हम आमतौर पर सबसे पढ़ा-लिखा समुदाय मानते हैं, पूरे देश में साक्षरता के मामले में पांचवें स्थान पर थे. उनकी पुरुष साक्षरता 43.7% और महिला साक्षरता 9.6% थी. दक्षिण भारत में, जैसे मद्रास में ब्राह्मणों की पुरुष साक्षरता 80% तक थी, लेकिन उत्तर भारत में यह आंकड़ा काफी कम था.
क्षेत्रीय अंतर और सामाजिक हकीकत
1931 की जनगणना ने यह भी दिखाया कि दक्षिण भारत में साक्षरता का स्तर उत्तर भारत की तुलना में कहीं ज्यादा था. उदाहरण के लिए, मद्रास में ब्राह्मण और नायर जैसी जातियां शिक्षा में बहुत आगे थीं, जबकि बॉम्बे में भी ब्राह्मणों की पुरुष साक्षरता 78.8% थी. दूसरी ओर, उत्तर भारत में बिहार और ओडिशा जैसे राज्यों में कायस्थ सबसे साक्षर थे. वहीं अन्य जातियां जैसे भूमिहार और राजपूत पीछे थे.
पंजाब की खत्री जाति 45.1% पुरुष, 12.6% महिला साक्षरता के साथ चौथे स्थान पर थी. लेकिन कुछ प्रभावशाली जातियां, जैसे उत्तर-पश्चिम के जाट (5.3% पुरुष, 0.6% महिला) और उत्तर भारत के यादव (3.9% पुरुष, 0.2% महिला), साक्षरता में बहुत पीछे थे. दलित समुदायों में महार जाति, जिससे डॉ. बी.आर. अंबेडकर आते थे, अन्य अनुसूचित जातियों से थोड़ा आगे थी, लेकिन उनकी साक्षरता भी सिर्फ 4.4% (पुरुष) और 0.4% (महिला) थी.
महिला साक्षरता का आलम यह था कि हर जाति में पुरुषों की तुलना में महिलाएं बहुत पीछे थीं. यह उस समय की पितृसत्तात्मक सोच को दर्शाता है, जहां पुरुषों की शिक्षा को ज्यादा महत्व दिया जाता था, क्योंकि उनसे रोजगार की उम्मीद थी.
सामाजिक आंदोलनों का उभार
1931 की जनगणना ने सिर्फ आंकड़े ही नहीं दिए, बल्कि सामाजिक बदलाव की नींव भी रखी. दक्षिण भारत में ब्राह्मणों की शिक्षा और सरकारी नौकरियों में दबदबा देखकर वहां द्रविड़ आंदोलन और बॉम्बे में ज्योतिबा फुले के नेतृत्व में गैर-ब्राह्मण आंदोलन ने जोर पकड़ा. ये आंदोलन इस बात का सबूत थे कि शिक्षा और अवसरों की असमानता समाज में बड़े बदलाव की मांग को जन्म दे रही थी.
नया दौर, नई उम्मीदें
अब बात करते हैं 2027 की. सरकार ने साफ कर दिया है कि अगली जनगणना में जातियों की गिनती होगी, और इसमें सामाजिक-आर्थिक आंकड़े भी शामिल होंगे, जैसे कि 1931 में हुए थे. विपक्ष इसे अपनी जीत बता रहा है, क्योंकि वह लंबे समय से इसकी मांग करता रहा है. लेकिन सवाल यह है कि क्या यह जनगणना पुरानी असमानताओं को समझने और खत्म करने में मदद करेगी? या फिर यह सिर्फ राजनीतिक मुद्दा बनकर रह जाएगा?
कई विशेषज्ञों का मानना है कि जातिगत जनगणना से न सिर्फ आरक्षण नीतियों को बेहतर करने में मदद मिलेगी, बल्कि यह भी पता चलेगा कि कौन से समुदाय आज भी शिक्षा और आर्थिक अवसरों में पीछे हैं. हालांकि, कुछ लोग इसे सामाजिक विभाजन को बढ़ाने वाला कदम भी मानते हैं.
1931 की जनगणना ने हमें उस समय के भारत की एक झलक दी थी, जहां शिक्षा और सामाजिक स्थिति में भारी असमानता थी. आज, जब हम 2027 की ओर देख रहे हैं, तो यह उम्मीद है कि नई जनगणना न सिर्फ आंकड़े देगी, बल्कि समाज को और समावेशी बनाने की दिशा में एक कदम होगा.