Arvind Kejriwal ने एक के बाद एक की हैं कई राजनीतिक गलतियां, ऐसे ही नहीं इस मोड़ पर खड़ी है AAP!

आप के 'स्वयंसेवक' अपने जीवन में आगे बढ़ गए और राजनीतिक सपनों का पीछा करने में व्यस्त अरविद केजरीवाल पार्टी संगठन बनाने की कड़ी मेहनत नहीं करना चाहते थे. जिम्मेदारी नौसिखिए सहयोगियों को दी गई जो काम नहीं कर सके.
Arvind Kejriwal

अरविंद केजरीवाल

Arvind Kejriwal:  दिल्ली के सीएम अरविंद केजरीवाल को सुप्रीम कोर्ट ने 50 दिन बाद शराब घोटाला मामले में राहत दे दी. केजरीवाल को 20 दिनों के लिए जमानत दी गई है. अब उन्हें 2 जून को जांच एजेंसी के सामने पेश होना है. जेल से बाहर आते ही केजरीवाल ने अब पार्टी के लिए चुनावी प्रचार की कमान संभाल ली है. कानूनी मुद्दों को छोड़ दें, तो एक मौजूदा मुख्यमंत्री की गिरफ्तारी और न्यायिक हिरासत आश्चर्यचकित तो करती ही है. लेकिन सवाल ये है कि क्या सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी को डर नहीं है कि गिरफ्तारी का उल्टा असर हो सकता है,अरविंद केजरीवाल और उनकी आम आदमी पार्टी के पक्ष में सहानुभूति की लहर पैदा हो सकती है?

केजरीवाल कोई हल्के नेता नहीं हैं. उन्होंने दिल्ली राज्य विधानसभा चुनावों में लगातार दो बार भाजपा को तीन-चौथाई बहुमत से हराया है. पंजाब जीतकर, उन्होंने दिखाया कि वह दिल्ली की राजनीति के अलावा दूसरे राज्य की राजनीति करने में भी सक्षम हैं, दो राज्यों में उनकी सरकारें हैं, और ऐसा करने वाली वह भाजपा और कांग्रेस के अलावा एकमात्र पार्टी है.

लोकप्रिय जन नेताओं को जेल में डालना आसान नहीं है, भले ही उन्होंने बड़े अपराध किए हों. बात सिर्फ यह नहीं है कि भाजपा आज सर्वशक्तिमान पार्टी है, बल्कि यह भी है कि केजरीवाल उतने लोकप्रिय नहीं हैं, जितने हो सकते थे. आम आदमी पार्टी का गठन 11 साल पहले नवंबर 2012 में हुआ था. इन 11 सालों में केजरीवाल ने कई राजनीतिक गलतियां कीं, जिससे उनका कद बढ़ने की बजाय छोटा हो गया.

देश से पहले दिल्ली से मुकाबला

AAP का जन्म स्थानीय आंदोलन से हुआ जिसने राष्ट्रीय राजनीति को हिलाकर रख दिया. लेकिन जिस व्यक्ति ने राष्ट्रीय स्तर पर प्रभाव डाला, उसने दिल्ली का मुख्यमंत्री बनना चुना, जिसे पूर्ण राज्य का दर्जा भी प्राप्त नहीं है. ऐसा करके उन्होंने तुरंत अपना कद छोटा कर लिया. उन्हें लोकसभा सीट जीतने के लिए काम करना चाहिए था और पहले दिन से ही राष्ट्रीय राजनीति में प्रवेश करना चाहिए था.

केजरीवाल इस रास्ते को लेकर इतने भ्रमित थे कि उन्होंने 2014 के लोकसभा चुनावों पर ध्यान केंद्रित करने के लिए दिल्ली के सीएम पद से इस्तीफा देने का बहाना भी बनाया. इसके बाद उन्होंने नरेंद्र मोदी के खिलाफ वाराणसी सीट से चुनाव लड़ा. यह स्पष्ट था कि वह दशकों से बीजेपी के खाते में जा रही इस सीट को जीतने वाले नहीं थे.

इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि उन्होंने खुद को एक उभरती हुई नई व्यवस्था के ख़िलाफ़ खड़ा किया. इसके बजाय उन्हें खुद को पुरानी व्यवस्था के लिए वास्तविक चुनौती देने वाले के रूप में स्थापित करते हुए अमेठी में राहुल गांधी से लड़ना चाहिए था. या शायद नई दिल्ली लोकसभा सीट, जहां उनके जीतने की बेहतर संभावना होती.

प्रशांत भूषण और योगेन्द्र यादव को किया किनारे

2011 का लोकपाल आंदोलन समाज से आ रही एक नई ताकत की तरह लग रहा था. लेकिन 2015 के दिल्ली विधानसभा चुनाव में 67/70 सीटें जीतने के बाद अरविंद केजरीवाल ने प्रशांत भूषण और योगेन्द्र यादव को पार्टी से बर्खास्त कर दिया. इस हाई-प्रोफाइल अलोकतांत्रिक कदम ने रातों-रात AAP की छवि को कई क्षेत्रीय राजनीतिक दलों की तरह एक सामाजिक ताकत से एक व्यक्ति की निजी जागीर में बदल दिया. आप कम से कम एक नई ताकत नजर आ रही थी.

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पार्टी संगठन नहीं बना रहे

आप के ‘स्वयंसेवक’ अपने जीवन में आगे बढ़ गए और राजनीतिक सपनों का पीछा करने में व्यस्त अरविद केजरीवाल पार्टी संगठन बनाने की कड़ी मेहनत नहीं करना चाहते थे. जिम्मेदारी नौसिखिए सहयोगियों को दी गई जो काम नहीं कर सके. इसने AAP को, अन्य गैर-भाजपा पार्टियों की तरह, सैनिकों के बिना एक सेना बना दिया. जनरल ने सोचा कि वह काफी है. आज भाजपा कार्यकर्ता देश भर में घर-घर जाकर मतदाताओं को समझा सकते हैं कि केजरीवाल की गिरफ्तारी भ्रष्टाचार पर कड़ी कार्रवाई है और यह राजनीति से प्रेरित नहीं है. आप के पास इस आख्यान का मुकाबला करने के लिए कार्यकर्ता नहीं हैं.

राज्य-दर-राज्य रणनीति

अरविंद केजरीवाल ने एक समय में एक राज्य में राष्ट्रीय राजनीति की. कांग्रेस की तरह, उनका मानना था कि संसद का रास्ता राज्य विधानसभाओं से होकर गुजरता है. वास्तव में भाजपा और कांग्रेस दोनों ही राष्ट्रीय राजनीति और राष्ट्रीय प्रचार के माध्यम से सत्ता तक पहुंचे. चाहे वह स्वतंत्रता आंदोलन हो या राम मंदिर आंदोलन, यह राष्ट्रीय स्थिति ही थी जिसने बाद में पार्टियों को राज्य दिए. राज्य-दर-राज्य रणनीति में बहुत अधिक समय लगता है.

पंजाब के लिए असफल रणनीति

पंजाब में आम आदमी पार्टी भाग्यशाली रही और उसने 2014 में अचानक वहां 4 लोकसभा सीटें जीत लीं. और फिर भी उन्होंने वहां 2017 के विधानसभा चुनाव में गड़बड़ी की, जिसे उन्हें थाली में रखकर जीतना चाहिए था. जीत के जबड़े से हार सुनिश्चित करने वाले सभी फैसले अरविंद केजरीवाल और उनके नौसिखिए सहयोगियों द्वारा लिए गए, और पंजाब में जमीन पर मायने रखने वाले पार्टी नेताओं को दरकिनार कर दिया गया. केजरीवाल ने खुद पंजाब का सीएम बनने का भी सपना देखा था. 2017 में पंजाब की हार ने पार्टी की योजनाओं को कुछ साल पीछे धकेल दिया.

हालांकि अरविंद केजरीवाल अपना केक रख सकते थे और उसे खा भी सकते थे, लेकिन जब यह उनके अनुकूल हो तो धर्मनिरपेक्ष या सांप्रदायिक खेल खेल सकते थे. कुछ समय के लिए, वह सफल हो गया. वह वैचारिक सवालों से बचते हुए दिल्ली में भाजपा और कांग्रेस दोनों के मतदाताओं में सेंध लगाने में कामयाब रहे. लेकिन 2020 के दिल्ली दंगों के बाद उन्होंने फैसला किया कि उन्हें धर्म कार्ड भी खेलना शुरू करना होगा. नतीजा यह है कि आज आप ने अपने मूल समर्थकों को खो दिया है.

भूल रहे हैं लोकपाल की जड़

अरविंद केजरीवाल शासन में जवाबदेही और भ्रष्टाचार को समाप्त करने की मांग करते हुए लोकपाल आंदोलन से प्रमुखता से उभरे. लेकिन जैसे-जैसे जनता का मूड भ्रष्टाचार से आगे बढ़ा, वैसे-वैसे केजरीवाल भी आगे बढ़े. इससे केजरीवाल एक ऐसे अवसरवादी के रूप में सामने आए जो वास्तव में जो कह रहे थे उसका मतलब नहीं था.

अत्यधिक नकारात्मक प्रचार

लोकपाल आंदोलन में केजरीवाल के लिए जो काम आया वह यह कि उन्होंने सिर्फ एक समस्या भ्रष्टाचार की ओर इशारा नहीं किया बल्कि एक समाधान एक नया कानून पेश किया. इसके बाद उन्होंने दिल्ली में यह कहकर जीत हासिल की कि वह बढ़े हुए बिजली बिलों की समस्या का समाधान करेंगे.

लेकिन राष्ट्रीय स्तर पर अपनी पहचान बनाने के लिए, उन्होंने एक गलत मोड़ ले लिया, अपना ज्यादातर ध्यान नकारात्मक प्रचार, मोदी की अति-आलोचना और कांग्रेस की आलोचना पर केंद्रित कर दिया. नकारात्मक अभियान ने उनके उस समर्थन को नष्ट कर दिया जो उस भावना से आया था कि उन्होंने एक “विकल्प” की पेशकश की थी.

शिक्षा और स्वास्थ्य को भूल रहे

उनके डिप्टी मनीष सिसौदिया ने आप को एक नई कहानी दी, जिसमें शिक्षा और स्वास्थ्य पर ध्यान केंद्रित करना शामिल था. केजरीवाल ने स्वयं इस आख्यान को तभी अपनाया जब यह काम करने लगा. इसे “दिल्ली मॉडल” के रूप में जाना गया और इससे AAP को अंततः 2021 में पंजाब जीतने में मदद मिली.

एक बार फिर सकारात्मक प्रचार काम आया. लेकिन फरवरी 2023 में सिसोदिया की गिरफ्तारी के बाद, केजरीवाल नकारात्मक प्रचार में वापस आ गए. उन्हें उस चीज़ पर अड़े रहना चाहिए था जो उनके लिए सबसे अच्छा काम कर रही थी – शिक्षा और स्वास्थ्य. इससे उनकी सार्वजनिक रेटिंग ऊंची बनी रहती और शायद इस डर से उनकी गिरफ्तारी रुक जाती . लेकिन केजरीवाल ने “विकास के दिल्ली मॉडल” के बजाय राजनीति को चुना.

आम आदमी से राजनीतिज्ञ बनना

केजरीवाल ने अपनी राजनीतिक पारी की शुरुआत खुद को एक बाहरी व्यक्ति के रूप में पेश करके की जो व्यवस्था बदलना चाहता था. उन्होंने खुद को “आम आदमी” यानी आम आदमी बताया. लेकिन आख़िरकार वह अधिकांश राजनीतिज्ञों से भी अधिक राजनीतिज्ञ बन गये.

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