ईरान की सत्ता का ‘सूत्रधार’ है बाराबंकी का किंटूर गांव? जानें सुप्रीम लीडर खामेनेई का UP कनेक्शन?

सैयद अहमद मुसवी की मौत 1869 में हुई और उन्हें इराक के कर्बला में दफनाया गया. लेकिन उनकी धार्मिक शिक्षाएं और उनकी सोच उनके परिवार में ज़िंदा रहीं. इन्हीं विचारों ने न सिर्फ उनके वंशजों को, बल्कि पूरे ईरान की राजनीति और समाज को भी बहुत गहराई से प्रभावित किया. उन्हीं के पोतों में से एक थे रुहोल्लाह, जिन्हें आज दुनिया अयातुल्ला रुहोल्लाह खामेनेई के नाम से जानती है.
Iran Islamic Revolution

सैयद अहमद मूसवी और खामेनेई

Iran Islamic Revolution: क्या आप जानते हैं कि आज ईरान के सबसे ताकतवर शख्स, सुप्रीम लीडर अयातुल्ला अली खामेनेई का भारत से एक खास रिश्ता है? ये रिश्ता कोई आज का नहीं, बल्कि सदियों पुराना है और इसकी जड़ें हमारे उत्तर प्रदेश के एक छोटे से गांव बाराबंकी के किंटूर में दबी हैं. ये कहानी है एक परिवार की, एक आध्यात्मिक सफर की. आइये जानते हैं कि कैसे भारत की मिट्टी से निकले एक बीज ने ईरान की राजनीति में तूफान ला दिया.  

जब एक भारतीय मौलवी ईरान पहुंचा

इस कहानी शुरू होती है 1800 के दशक में, जब ब्रिटिश राज भारत में अपनी जड़ें जमा रहा था. उस समय बाराबंकी के किंटूर गांव में सैयद अहमद मूसवी नाम के एक शिया मौलवी रहते थे. इनके परिवार का नाता भले ही ईरान से था, लेकिन सैयद अहमद मूसवी का दिल उन्हें अपनी रूहानी ज़मीन की ओर खींचता रहा.  

1830 में उन्होंने इराक के नजफ शहर में हज़रत अली की मज़ार के दर्शन के लिए भारत छोड़ दिया. लेकिन ये सिर्फ एक यात्रा नहीं थी, ये एक ऐसा सफर था जिसके बाद वो कभी भारत नहीं लौटे. वो ईरान के खुमैन शहर में बस गए, शादी की और एक नया परिवार बसाया. सबसे दिलचस्प बात ये है कि उन्होंने अपनी भारतीय पहचान कभी नहीं छोड़ी. अपनी आखिरी सांस तक उन्होंने अपने नाम के साथ ‘हिंदी’ शब्द जोड़ा रखा. सोचिए, आज भी ईरानी सरकारी दस्तावेज़ों में उनका नाम ‘सैयद अहमद मूसवी हिंदी’ के तौर पर दर्ज है. ये दिखाता है कि वो अपनी भारतीय जड़ों से कितने जुड़े हुए थे.  

क्रांति का बीज खामेनेई का जन्म

सैयद अहमद मूसवी की मौत 1869 में हुई और उन्हें इराक के कर्बला में दफनाया गया. लेकिन उनकी धार्मिक शिक्षाएं और उनकी सोच उनके परिवार में ज़िंदा रहीं. इन्हीं विचारों ने न सिर्फ उनके वंशजों को, बल्कि पूरे ईरान की राजनीति और समाज को भी बहुत गहराई से प्रभावित किया.

उन्हीं के पोतों में से एक थे रुहोल्लाह, जिन्हें आज दुनिया अयातुल्ला रुहोल्लाह खामेनेई के नाम से जानती है. खुमैनी का जन्म 24 सितंबर, 1902 को ईरान के खुमैन में हुआ था. वो बचपन से ही बड़े गंभीर स्वभाव के थे और छह साल की उम्र से ही उन्होंने कुरान पढ़ना शुरू कर दिया था.

जब खामेनेई एक बड़े धार्मिक नेता बने, तो उन्होंने ईरान के तत्कालीन राजा शाह रजा पहलवी और अमेरिका के साथ उनके बढ़ते रिश्तों की खुलकर आलोचना करनी शुरू कर दी. शाह को ये बात बिल्कुल पसंद नहीं आई और उन्होंने खामेनेई को देश से निकाल दिया. खामेनेई ने तुर्की, फिर इराक और बाद में फ्रांस में जाकर शरण ली, लेकिन उनका संघर्ष जारी रहा.

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सत्ता का तख्तापलट

इसी दौर में एक और नौजवान खामेनेई के विचारों से बहुत प्रभावित हो रहा था. उनका नाम था अली खामेनेई. अली खामेनेई का जन्म 1939 में ईरान के नजफ में हुआ था और वे एक धार्मिक परिवार से आते थे. उन्होंने बहुत कम उम्र में ही मौलवी की शिक्षा ली. अली खामेनेई की परवरिश मशहद शहर में हुई, जहां उन्होंने शिया धर्म की गहरी पढ़ाई, फारसी इतिहास और क्रांति के विचारों को सीखा.

1979 में अयातुल्ला रुहोल्लाह खामेनेई ने ईरान में एक ऐतिहासिक इस्लामिक क्रांति का बिगुल बजाया. उनके ज़बरदस्त और प्रेरणादायक भाषणों ने अमेरिका समर्थित शाह रजा पहलवी की सत्ता को जड़ से उखाड़ फेंका. इसके बाद ईरान एक आधुनिक राजशाही वाला देश नहीं रहा, बल्कि एक धार्मिक-राज्य बन गया. अब यहां का संविधान और सारे कानून इस्लामी सिद्धांतों पर आधारित थे.

1989 में जब अयातुल्ला खामेनेई का निधन हुआ, तो उनके सबसे भरोसेमंद साथी और शिष्य अयातुल्ला अली खामेनेई ने उनकी जगह ली और सुप्रीम लीडर का पद संभाला. ये पद ईरान में सबसे बड़ा और सबसे ताकतवर है. दिलचस्प बात ये है कि सुप्रीम लीडर बनते ही खामेनेई ने संविधान में कुछ बदलाव भी करवाए, जिससे उनका पद और भी मज़बूत हो गया.

तब से लेकर आज तक, अयातुल्ला अली खामेनेई ही ईरान की बागडोर संभाले हुए हैं. भले ही देश का राष्ट्रपति कोई और बनता हो (जैसे अभी इब्राहिम रईसी हैं), लेकिन असली शक्ति सुप्रीम लीडर के हाथ में ही रहती है. ईरान को एक धार्मिक सत्तावादी देश बनाने में अयातुल्ला अली खामेनेई और उनके गुरु रुहोल्लाह खामेनेई का बहुत बड़ा हाथ माना जाता है.

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