जिस ‘लोकनायक’ ने हिला डाली थी इंदिरा गांधी की कुर्सी, वो राजनीति से दूर कैसे रहे? कहानी बिहार के जयप्रकाश की

Sampoorna Kranti: जेपी का सपना था एक ऐसा भारत, जहां भ्रष्टाचार और अन्याय न हो. लेकिन वो खुद कभी सत्ता का हिस्सा नहीं बने. न उन्होंने कोई चुनाव लड़ा, न ही कोई पद स्वीकार किया. एक बार पंडित नेहरू के बाद प्रधानमंत्री के लिए उनके नाम की चर्चा हुई, लेकिन जेपी ने साफ मना कर दिया. वो कहते थे, “मेरा काम जनता को जागृत करना है, सत्ता में बैठना नहीं.”
Jayaprakash Narayan Jayanti

जयप्रकाश नारायण

Jayaprakash Narayan Jayanti: देश की राजनीति में कई ऐसे पुरोधा हुए, जिन्होंने सत्ता के गलियारों में अपनी छाप छोड़ी. इन्हीं में से एक थे जयप्रकाश नारायण, जिन्हें प्यार से ‘जेपी’ और सम्मान से ‘लोकनायक’ कहा जाता है. जेपी ने अपने जमाने में इंदिरा गांधी जैसी ताकतवर नेत्री की कुर्सी हिला दी, लेकिन खुद कभी सत्ता की सीढ़ी पर नहीं चढ़े? आइए आज उनके जीवन की वो कहानी जानते हैं, जो रोमांच, बलिदान और क्रांति से भरी है. ये कहानी है एक ऐसे इंसान की, जिसने जेल की दीवारें तोड़ीं, ब्रिटिश हुकूमत को छकाया और आजाद भारत में भ्रष्टाचार के खिलाफ ‘संपूर्ण क्रांति’ का बिगुल फूंका.

कौन थे जयप्रकाश नारायण?

जयप्रकाश नारायण, एक ऐसे शख्स थे जिन्होंने कभी सत्ता की लालच नहीं की, लेकिन उनके आंदोलनों ने सत्ता की नींव जरूर हिला दी. 1902 में बिहार के सिताब दियारा में जन्मे जेपी ने पहले स्वतंत्रता संग्राम में हिस्सा लिया और फिर 1970 के दशक में इंदिरा गांधी की सरकार के खिलाफ ‘संपूर्ण क्रांति’ का बिगुल फूंका. उनकी ये क्रांति कोई छोटा-मोटा आंदोलन नहीं था, बल्कि भ्रष्टाचार, महंगाई और बेरोजगारी के खिलाफ जनता की हुंकार थी, जिसमें खासकर नौजवानों ने बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया.

जब जेपी ने जेल की दीवारें तोड़ दीं

बात 1942 की है, जब जेपी ने हजारीबाग जेल से अपने साथियों के साथ मिलकर फरारी ले ली. अंधेरी रात में जेल की दीवारें फांदकर वो निकल गए और ब्रिटिश हुकूमत की नाक में दम कर दिया. नेपाल में छिपकर उन्होंने भूमिगत आंदोलन चलाया और अंग्रेजों को खूब छकाया. लेकिन क्या आप जानते हैं? जेपी की इस बहादुरी पर महात्मा गांधी ने तारीफ तो की, लेकिन उनके हिंसक तौर-तरीकों से सहमति नहीं जताई. जेपी ने जवाब दिया, “गांधी जी का आत्मबल मेरे पास नहीं, इसलिए बंदूक का सहारा आसान लगा.” ये था जेपी का बेबाक अंदाज.

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संपूर्ण क्रांति की आग जो पूरे देश में फैली

1970 का दशक भारत के लिए मुश्किल भरा था. महंगाई आसमान छू रही थी, भ्रष्टाचार हर जगह था और नौजवानों का भविष्य अंधेरे में डूबा था. ऐसे में जेपी ने बिहार से ‘संपूर्ण क्रांति’ की शुरुआत की. 1974 में पटना के गांधी मैदान में उनकी हुंकार आज भी गूंजती है, “ये क्रांति है दोस्तों, सम्पूर्ण क्रांति. इसके लिए जेल जाना पड़े, गोलियां खानी पड़ें, सब सहना होगा.” इस आंदोलन ने न सिर्फ बिहार, बल्कि पूरे देश को झकझोर दिया. छात्र-नौजवान उनके पीछे लामबंद हो गए. 1975 में जब इंदिरा गांधी ने आपातकाल (Emergency) लगाया, तो जेपी ने रामलीला मैदान में ऐलान किया कि सरकारी कर्मचारी और सेना गैरकानूनी आदेश न मानें. नतीजा? जेपी समेत तमाम नेताओं को जेल में डाल दिया गया. लेकिन जेपी की आवाज को कोई रोक नहीं सका.

जनता पार्टी और बिहार की सियासत

1977 के चुनाव में जेपी के आंदोलन की ताकत ने कमाल दिखाया. बिखरे हुए विपक्ष को एकजुट कर जनता पार्टी बनी, और इंदिरा गांधी की सरकार सत्ता से बाहर हो गई. लेकिन जेपी को जल्द ही एहसास हुआ कि नई सरकार भी पुराने रास्ते पर चल रही है. वो निराश हुए, लेकिन कभी सत्ता के करीब नहीं आए. इस आंदोलन ने बिहार की सियासत को कई बड़े चेहरे दिए, जैसे लालू प्रसाद यादव, नीतीश कुमार और राम विलास पासवान. आज जब बिहार में चुनाव की सरगर्मी तेज है, इन नेताओं के नाम तो गूंज रहे हैं, लेकिन जेपी की व्यवस्था परिवर्तन की बात कहीं खो सी गई है.

जेपी क्यों रहे सत्ता से दूर?

जेपी का सपना था एक ऐसा भारत, जहां भ्रष्टाचार और अन्याय न हो. लेकिन वो खुद कभी सत्ता का हिस्सा नहीं बने. न उन्होंने कोई चुनाव लड़ा, न ही कोई पद स्वीकार किया. एक बार पंडित नेहरू के बाद प्रधानमंत्री के लिए उनके नाम की चर्चा हुई, लेकिन जेपी ने साफ मना कर दिया. वो कहते थे, “मेरा काम जनता को जागृत करना है, सत्ता में बैठना नहीं.” बाद में वो सर्वोदय, शांति प्रयासों और सामाजिक कार्यों में जुट गए.

जेपी की सबसे बड़ी ताकत थी उनकी सादगी और निस्वार्थ भाव. वो नौजवानों के हीरो थे, क्योंकि वो खुद उनके साथ सड़कों पर उतरते थे, जेल जाते थे. राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर ने उनकी तारीफ में लिखा था, “कहते हैं उसको जयप्रकाश जो नहीं मरण से डरता है, ज्वाला को बुझते देख कुंड में, स्वयं कूद जो पड़ता है.” 1999 में जेपी को मरणोपरांत भारत रत्न से सम्मानित किया गया. आज भले ही सियासत में उनकी बातें कम सुनाई दें, लेकिन उनका बलिदान और उनकी क्रांति की गूंज हमेशा जिंदा रहेगी.

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