मुंह से ‘आग’ उगलने वाले राज ठाकरे पर एक्शन क्यों नहीं? महाराष्ट्र के लिए ही नहीं, देश के लिए भी खतरनाक है ‘मराठी मानुष’ वाला खेल!
महाराष्ट्र में भाषा विवाद
Maharashtra Language Controversy: महाराष्ट्र की सड़कों से लेकर सियासी गलियारों तक इन दिनों एक ही बात गूंज रही है, हिंदी बनाम मराठी. इस पूरे हंगामे के केंद्र में हैं महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना के मुखिया राज ठाकरे, जिनके तीखे बयानों और पार्टी कार्यकर्ताओं की हरकतों ने हिंदीभाषी लोगों को निशाना बनाकर माहौल गरमा दिया है. लेकिन बड़ा सवाल ये है कि मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस की अगुवाई वाली बीजेपी-शिवसेना-एनसीपी गठबंधन सरकार राज ठाकरे और उनकी पार्टी के खिलाफ कड़ी कार्रवाई क्यों नहीं कर पा रही है? क्या राज ठाकरे ने बीजेपी के कुछ बड़े नेताओं बृजभूषण शरण सिंह और निशिकांत दुबे से पंगा लेकर खुद की मुश्किलें बढ़ा ली हैं? ‘मराठी मानुष’ वाला यह खेल महाराष्ट्र ही नहीं देख के लिए भी खतरनाक है. आइए, सबकुछ विस्तार से जानते हैं.
हिंदी को तीसरी भाषा बनाने का फैसला
यह सारा बवाल अप्रैल 2025 में शुरू हुआ, जब महाराष्ट्र सरकार ने राष्ट्रीय शिक्षा नीति (NEP) 2020 के तहत कक्षा 1 से 5 तक हिंदी को तीसरी अनिवार्य भाषा बनाने का फैसला लिया. सरकार का तर्क था कि इससे बच्चों के भाषाई कौशल सुधरेंगे और हिंदी को बढ़ावा मिलेगा. मुख्यमंत्री फडणवीस ने इसे शिक्षा में सुधार का हिस्सा बताया और भरोसा दिलाया कि मराठी का महत्व कम नहीं होगा.
लेकिन मनसे प्रमुख राज ठाकरे को ये बात नागवार गुजरी. उन्होंने इसे मराठी अस्मिता पर हमला करार दे दिया. राज ने कड़े शब्दों में कहा, “हिंदी कोई राष्ट्रीय भाषा नहीं, बल्कि एक क्षेत्रीय भाषा है. इसे महाराष्ट्र पर थोपने की कोशिश बर्दाश्त नहीं की जाएगी.” उनकी पार्टी ने तुरंत स्कूलों के बाहर हस्ताक्षर अभियान शुरू कर दिया और धमकी दी कि अगर हिंदी अनिवार्य की गई, तो वे स्कूल बंद करवा देंगे.
हिंदीभाषियों पर हमला
विवाद तब और गहरा गया जब 29 जून 2025 को मुंबई के मीरा रोड पर मनसे कार्यकर्ताओं ने एक गुजराती दुकानदार को कथित तौर पर हिंदी में बात करने पर पीट दिया. इस घटना से हिंदीभाषी समुदाय में भारी गुस्सा फैल गया. कारोबारियों ने मीरा भायंदर में एक दिन का बंद बुलाया और मनसे के खिलाफ बड़ी रैली निकाली. राज ठाकरे कहा, “जो हुआ, सही हुआ. महाराष्ट्र में रहते हो, तो मराठी सीखो, वरना महाराष्ट्र स्टाइल में जवाब मिलेगा.”
इसके बाद 5 जुलाई को वर्ली में एक सभा में राज ठाकरे ने कथित तौर पर अपने कार्यकर्ताओं से कहा, “परप्रांतीयों को पीटो, लेकिन वीडियो मत बनाओ.” इस बयान के खिलाफ महाराष्ट्र पुलिस महानिदेशक (DGP) रश्मि शुक्ला को शिकायत भी दर्ज कराई गई, लेकिन अब तक कोई ठोस कार्रवाई नहीं हुई है.
फडणवीस सरकार की चुप्पी मजबूरी या मास्टरस्ट्रोक?
सबसे बड़ा सवाल यही है कि फडणवीस सरकार राज ठाकरे और मनसे के खिलाफ सख्त कदम क्यों नहीं उठा रही है? इसके पीछे कई कारण हो सकते हैं.
सियासी गुणा-गणित और आने वाले चुनाव
महाराष्ट्र में जल्द ही स्थानीय निकाय चुनाव होने वाले हैं. मराठी अस्मिता का मुद्दा हमेशा से राज्य की राजनीति में बेहद संवेदनशील रहा है. 1950 के दशक में हुए संयुक्त महाराष्ट्र आंदोलन और 1966 में शिवसेना की स्थापना भी मराठी पहचान के इर्द-गिर्द हुई थी. फडणवीस सरकार नहीं चाहती कि हिंदी-मराठी विवाद को और हवा देकर मराठी वोटरों को नाराज किया जाए. शायद इसीलिए सरकार ने हिंदी को अनिवार्य करने के दो आदेश वापस ले लिए और त्रिभाषा नीति की समीक्षा के लिए एक समिति बना दी है.
महायुति गठबंधन की मजबूरी
फडणवीस की सरकार में बीजेपी के साथ एकनाथ शिंदे की शिवसेना और अजित पवार की एनसीपी भी शामिल हैं. ये दोनों सहयोगी दल मराठी अस्मिता के मुद्दे पर बेहद संवेदनशील हैं. शिवसेना के मंत्री उदय सामंत ने त्रिभाषा नीति का समर्थन तो किया, लेकिन ये भी साफ किया कि मराठी के महत्व को कम नहीं होने दिया जाएगा. ऐसे में बीजेपी को अपने सहयोगियों का साथ बनाए रखने के लिए फूंक-फूंक कर कदम रखने पड़ रहे हैं.
राज ठाकरे की सियासी प्रासंगिकता
भले ही आज राज ठाकरे की मनसे कमजोर दिख रही हो, लेकिन उनकी मराठी अस्मिता की राजनीति अभी भी कुछ इलाकों में असर रखती है. फडणवीस सरकार शायद नहीं चाहती कि राज ठाकरे को और उकसाकर इस मुद्दे को और बड़ा किया जाए, खासकर तब जब उद्धव ठाकरे की शिवसेना (UBT) भी इस मुद्दे पर उनके साथ खड़ी है.
कानूनी और प्रशासनिक चुनौतियां
मीरा रोड की घटना के बाद पुलिस ने कार्रवाई तो शुरू की थी, लेकिन ऐसी घटनाओं में पक्के सबूतों और गवाहों की कमी के कारण सख्त कार्रवाई करना मुश्किल हो जाता है. साथ ही, राज ठाकरे के बयानों को भड़काऊ माना गया है, लेकिन कानूनी रूप से उन्हें सजा दिलाना आसान नहीं है, क्योंकि वे अक्सर शब्दों का चुनाव बड़ी सावधानी से करते हैं. राज ठाकरे के बयानों ने न केवल हिंदीभाषी समुदाय को नाराज किया है, बल्कि बीजेपी के कुछ बड़े नेताओं से भी उनकी तीखी बहस हो गई है.
निशिकांत दुबे से टक्कर
झारखंड से बीजेपी सांसद निशिकांत दुबे ने राज ठाकरे के हिंदीभाषियों पर हमले के बयान पर पलटवार करते हुए कहा, “अगर तुममें हिम्मत है, तो उर्दू, तमिल या तेलुगु बोलने वालों को भी पीटकर दिखाओ. महाराष्ट्र से बाहर आओ, बिहार-यूपी में आकर देखो, तुम्हें पटक-पटक कर मारेंगे.” इस पर राज ठाकरे ने भी जवाब दिया, “दुबे, तुम मुंबई आओ, समंदर में डुबो-डुबो कर मारेंगे.”
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बृजभूषण शरण सिंह की धमकी
बीजेपी सांसद बृजभूषण शरण सिंह ने भी राज ठाकरे को चुनौती दी और कहा, “भाषा जोड़ने का काम करती है, तोड़ने का नहीं. महाराष्ट्र और उत्तर भारत का रिश्ता तुम्हारी हरकतों से टूटने वाला नहीं.” उन्होंने राज पर तंज कसते हुए कहा कि वे पढ़ते-लिखते नहीं हैं और भाषा-जाति के नाम पर राजनीति कर रहे हैं. राज ठाकरे ने इस पर सीधा जवाब नहीं दिया, लेकिन उनके बयानों से साफ है कि वे हिंदीभाषी नेताओं के खिलाफ अपना आक्रामक रुख बरकरार रखे हुए हैं.
इतना ही नहीं, भाजपा सांसद बृजभूषण शरण सिंह ने राज ठाकरे की प्रस्तावित अयोध्या यात्रा का विरोध किया था. उन्होंने चेताते हुए कहा था कि जब तक वह उत्तर भारतीयों से सार्वजनिक रूप से माफी नहीं मांग लेंगे, तब तक उन्हें उत्तर प्रदेश की धरती पर कदम भी नहीं रखने दिया जाएगा. पिछले महीने पांच जून को मनसे प्रमुख राज ठाकरे की अयोध्या यात्रा प्रस्तावित थी, लेकिन वो नहीं आए.
क्या राज ठाकरे ने गलत पंगा ले लिया?
राज ठाकरे की बयानबाजी और मनसे कार्यकर्ताओं की हरकतों ने न केवल हिंदीभाषी समुदाय को नाराज किया है, बल्कि बीजेपी के कुछ प्रभावशाली नेताओं से भी उनकी दुश्मनी बढ़ गई है. निशिकांत दुबे और बृजभूषण जैसे नेता हिंदीभाषी इलाकों में मजबूत पकड़ रखते हैं, और उनकी चुनौतियों ने इस विवाद को राष्ट्रीय स्तर पर पहुंचा दिया है. कुछ लोग इसे राज ठाकरे की खोई हुई सियासी जमीन को वापस पाने की कोशिश मान रहे हैं, लेकिन इस प्रक्रिया में उन्होंने बीजेपी के एक वर्ग को नाराज कर दिया है.
बीजेपी के लिए दोधारी तलवार है यह मुद्दा
हालांकि, बीजेपी के लिए यह मुद्दा दोधारी तलवार जैसा है. एक तरफ, वे हिंदी को बढ़ावा देकर अपने राष्ट्रीय एजेंडे को मजबूत करना चाहते हैं, लेकिन दूसरी तरफ, महाराष्ट्र में मराठी वोटरों को नाराज करने का जोखिम नहीं उठा सकते. यही वजह है कि फडणवीस सरकार ने इस मुद्दे पर रक्षात्मक रुख अपनाया है और राज ठाकरे के खिलाफ सख्त कार्रवाई से बच रही है.
फिलहाल, फडणवीस सरकार ने त्रिभाषा नीति पर विचार के लिए नरेंद्र जाधव की अध्यक्षता में एक समिति बनाई है. लेकिन राज ठाकरे और उनकी पार्टी का आक्रामक रुख और हिंदीभाषी समुदाय का गुस्सा इस मुद्दे को इतनी जल्दी शांत नहीं होने दे रहा. राज ठाकरे की बृजभूषण और निशिकांत जैसे नेताओं से तनातनी ने इस विवाद में और रंग भर दिया है. अब यह देखना दिलचस्प होगा कि क्या फडणवीस सरकार इस सियासी आग को ठंडा कर पाएगी, या यह और भड़केगी.