“आप जानते नहीं नेपाल में क्या हुआ था…”, सोशल मीडिया पर पाबंदी लगाने से सुप्रीम कोर्ट का इनकार, याचिका खारिज

Social Media Ban PIL: नेपाल में हाल ही में पहले टिकटॉक और फिर लगभग 26 सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म को बैन करने की कोशिश की गई थी. इसमें फेसबुक, एक्स, यूट्यूब भी शामिल थे. इस फैसले पर Gen-Z भड़क उठे थे.
Supreme Court On Social Media Ban

सुप्रीम कोर्ट

Supreme Court On Social Media Ban: सोशल मीडिया की लत और बच्चों की मानसिक सेहत पर पड़ रहे बुरे असर को लेकर सुप्रीम कोर्ट में दायर एक जनहित याचिका (PIL) को खारिज कर दिया गया है. इस याचिका में मांग की गई थी कि 14 से 18 वर्ष की आयु के किशोरों के सोशल मीडिया इस्तेमाल पर पूरी तरह से रोक लगाई जाए. सोमवार को इस अहम मामले की सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने साफ कर दिया कि सोशल मीडिया पर प्रतिबंध लगाने जैसे बड़े और संवेदनशील फैसले लेना न्यायपालिका का नहीं, बल्कि सरकार का अधिकार क्षेत्र है. अदालत ने इसे एक ‘नीतिगत मसला’ बताकर याचिका पर किसी भी तरह का निर्देश देने से मना कर दिया.

CJI ने क्यों किया ‘नेपाल’ का ज़िक्र?

सुनवाई के दौरान चीफ जस्टिस (CJI) बीआर गवई ने याचिकाकर्ता को एक बड़ी और रोचक टिप्पणी के साथ अपनी बात समझाई. उन्होंने पूछा, “आप जानते हैं, नेपाल में जब इस तरह का प्रतिबंध लगाने की कोशिश की गई थी, तब क्या हुआ था?” दरअसल, नेपाल में हाल ही में पहले टिकटॉक और फिर लगभग 26 सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म को बैन करने की कोशिश की गई थी. इसमें फेसबुक, एक्स, यूट्यूब भी शामिल थे. इस फैसले पर Gen-Z भड़क उठे थे.

नेपाल से सबक!

नेपाल में इस प्रतिबंध के खिलाफ छात्रों और युवाओं के नेतृत्व में बड़े पैमाने पर हिंसक विरोध प्रदर्शन हुए. पुलिस के साथ झड़पें हुईं और दुर्भाग्य से कई जानें भी गईं. यह दिखाता है कि डिजिटल युग में सोशल मीडिया पर पाबंदी लगाना कितना मुश्किल और संवेदनशील कदम हो सकता है. युवाओं की बड़ी आबादी ने अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और ऑनलाइन जुड़ने के अपने अधिकार के लिए आवाज़ उठाई, जिसके बाद सरकार को प्रतिबंध वापस लेना पड़ा. सुप्रीम कोर्ट ने इसी घटना का उदाहरण देते हुए यह बताया कि प्रतिबंध लगाने के व्यावहारिक और सामाजिक परिणाम बेहद गंभीर हो सकते हैं, जिनका मूल्यांकन करने का काम सरकार और कार्यकारी संस्थाओं का है, न कि अदालत का.

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याचिकाकर्ता क्या कह रहे हैं?

याचिका दायर करने वाले सामाजिक कार्यकर्ता की मुख्य चिंताएं ये थीं कि कोविड-19 के बाद बच्चे मोबाइल फोन और सोशल मीडिया के आदी हो गए हैं, जिसका उनकी मानसिक स्थिति और पढ़ाई पर नकारात्मक असर पड़ रहा है.

उन्होंने तर्क दिया कि यूरोप, ऑस्ट्रेलिया, चीन और अरब देशों में नाबालिगों के सोशल मीडिया उपयोग को नियंत्रित करने या प्रतिबंधित करने के लिए पहले से ही कड़े नियम हैं. सोशल मीडिया प्लेटफ़ॉर्म पर बच्चों की एकाग्रता और सामाजिक व्यवहार बिगड़ रहा है और माता-पिता का नियंत्रण भी नाकाफी साबित हो रहा है.

सुप्रीम कोर्ट का अंतिम फैसला

कोर्ट ने इन चिंताओं को समझते हुए कहा कि सोशल मीडिया के उपयोग को नियंत्रित करने या प्रतिबंधित करने के लिए कानून और नियम बनाने होंगे, जो कि केंद्र सरकार और संबंधित मंत्रालयों का कार्य है. कोर्ट ने बिना कोई निर्देश दिए याचिका को निपटा दिया. यह रुख साफ करता है कि अदालतें किशोरों के डिजिटल व्यवहार को नियंत्रित करने के लिए कानूनी दखल देने के पक्ष में नहीं हैं, बल्कि वे चाहती हैं कि सरकार इस जटिल सामाजिक-तकनीकी मुद्दे पर व्यापक नीति बनाए.

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