जिनकी सरकार बचाने के लिए अपनी कुर्सी छोड़ने को तैयार थे अटल-आडवाणी, कहानी देश के पहले गैर-कांग्रेसी प्रधानमंत्री की
अटल-आडवाणी ने मोरारजी देसाई से अपने और जनसंघ के अन्य मंत्रियों के इस्तीफे की पेशकश की थी.
Morarji Desai Death Anniversary: ये कहानी है एक ऐसे शख्स की, जो देश का पहला गैर-कांग्रेसी प्रधानमंत्री बना, जिसने कुर्सी से ज्यादा अपने उसूलों को प्यार किया. उनकी जिंदगी में ट्विस्ट हैं, ड्रामा है, और एक ऐसा सीन है जब अटल बिहारी वाजपेयी और लालकृष्ण आडवाणी ने कहा, “हम कुर्सी छोड़ देते हैं. ” जी हां, आज देश के पूर्व प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई की पुण्यतिथि है. उनकी सरकार ने इमरजेंसी के खौफ से छुटकारा दिलाया. संविधान के मूल ढांचे को बहाल किया. अदालतों को उनकी शक्ति वापस दी. कुर्सी गंवाई, लेकिन सिद्धांतों से कभी समझौता नहीं किया.
एकदम देसी हीरो थे मोरारजी !
मोरारजी का जन्म 29 फरवरी 1896 को गुजरात में हुआ. बचपन से ही वो सख्त मिजाज के थे, जो ठान लिया, वो कर दिखाया. आजादी की लड़ाई में अंग्रेजों से भिड़े, कई बार जेल गए. फिर राजनीति में कूद पड़े. सपना था कि एक दिन देश का बॉस बनें, यानी प्रधानमंत्री. पर रास्ता आसान नहीं था. पहले नेहरू आए, फिर शास्त्री, और फिर इंदिरा गांधी ने उनकी राह में कांटे बिछा दिए. लेकिन मोरारजी हारे नहीं, इंतजार करते रहे.
1977 में मौका मिला. इमरजेंसी के बाद जनता पार्टी जीती और मोरारजी को PM की कुर्सी मिली. वो 23 मार्च 1977 से 28 जुलाई 1979 तक बॉस रहे. भले ही वक्त कम था, पर कमाल बहुत किए.
इमरजेंसी का डर खत्म, देश को नई ताकत
इंदिरा गांधी की इमरजेंसी ने देश को डरा रखा था. संविधान कमजोर हो गया, कोर्ट की आवाज दब गई. मोरारजी आए और सब ठीक कर दिया. संविधान को फिर से ताकत दी, कोर्ट को उसका हक लौटाया. लोग कहते हैं, “मोरारजी ने कुर्सी गंवा दी, पर उसूलों से समझौता नहीं किया.” सत्ता छोड़ने के बाद सरकार ने कहा, “दिल्ली में बंगला ले लो.” पर मोरारजी बोले, “नहीं चाहिए!” और मुंबई के अपने छोटे से फ्लैट में मजे से रहने चले गए.
अटल-आडवाणी का इस्तीफा
अब आता है कहानी का मजेदार मोड़. मोरारजी की सरकार में सब कुछ ठीक नहीं था. जनता पार्टी में चौधरी चरण सिंह,जगजीवन राम जैसे कई बड़े-बड़े नेता थे, और सब अपनी-अपनी कुर्सी के लिए लड़ रहे थे. चरण सिंह को पहले सरकार से निकाला गया. फिर अटल और आडवाणी ने कहा, “इन्हें वापस लाया जाए, वरना पार्टी टूट जाएगी.” मोरारजी मान गए, पर ये गलती हो गई. चरण सिंह वापस आए और सरकार को और कमजोर कर दिया.
फिर एक नया झगड़ा शुरू हुआ—जनसंघ के लोगों की दोहरी सदस्यता का. सरकार पर मुसीबत के बादल छा गए. अटल और आडवाणी ने सोचा, “अगर हम कुर्सी छोड़ दें, तो शायद सरकार बच जाए.” दोनों मोरारजी के पास गए और बोले, “हम और जनसंघ के बाकी मंत्री इस्तीफा दे देते हैं. आपकी सरकार चलती रहेगी.” लेकिन मोरारजी का जवाब सुनकर सब हैरान रह गए. मोरारजी ने कहा कि मुझे तुम्हारा बलिदान नहीं चाहिए.”
क्यों? क्योंकि मोरारजी को लगता था कि सरकार उनकी शर्तों पर चलेगी, किसी की मेहरबानी पर नहीं. पर ये जिद भारी पड़ गई. सरकार नहीं बच पाई. चरण सिंह ने कांग्रेस की मदद से PM की कुर्सी छीन ली, पर वो भी ज्यादा दिन नहीं टिके.
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जिद्दी मोरारजी: अनशन से लेकर जेल तक
मोरारजी का जिद्दीपन कोई नई बात नहीं थी. 1974 में गुजरात में छात्रों ने चिमनभाई पटेल की सरकार के खिलाफ आंदोलन शुरू किया. मोरारजी उनके साथ कूद पड़े. उन्होंने कहा, “जब तक सरकार नहीं हटेगी, मैं खाना नहीं खाऊंगा.” आमरण अनशन शुरू कर दिया. इंदिरा गांधी टस से मस नहीं हुईं. पर मोरारजी भी पीछे नहीं हटे. आखिरकार इंदिरा को झुकना पड़ा.
इमरजेंसी में भी वो डटे रहे. 19 महीने जेल में काटे. अपनी किताब में लिखा, “जो देश डर में जीता है, उसका कोई भविष्य नहीं.” जेल से निकले तो इंदिरा के खिलाफ विपक्ष को एकजुट किया और 1977 में कांग्रेस को हराया.
अजीब आदत, मगर सच्चा दिल
मोरारजी की एक बात सबको चौंकाती थी. वो अपने पेशाब को पीते थे! कहते थे, “ये सेहत के लिए अच्छा है.” लोग हंसते थे, मजाक उड़ाते थे, पर मोरारजी को कोई फर्क नहीं पड़ता था. वो अपने तरीके से जिए. 10 अप्रैल 1995 को 99 साल की उम्र में उनकी जिंदगी खत्म हुई. सत्ता छोड़ने के बाद उन्होंने कभी जोड़-तोड़ नहीं किया. शांति से मुंबई में रहे.
मोरारजी की जिंदगी एक फिल्म की तरह थी—लड़ाई, जिद, और साहस से भरी. अटल-आडवाणी का इस्तीफा ठुकराना उनकी जिद थी या गलती, ये सोचने वाली बात है. उनकी सरकार भले ढाई साल चली, पर संविधान को मजबूत करने का काम आज भी लोग याद करते हैं.