7 महीने, 4 नई पार्टियां…बिहार विधानसभा चुनाव से पहले संयोग या सियासी प्रयोग?

बिहार की सियासत में अचानक नई पार्टियों की बाढ़-सी आ गई है. अक्टूबर 2024 से अप्रैल 2025 के बीच चार नए दल अस्तित्व में आए हैं, और हर दल अपने-अपने तरीके से बिहार की जनता का दिल जीतने की जुगत में है.
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प्रतीकात्मक तस्वीर

Bihar Politics: बिहार की राजनीति हमेशा से अपने रंग-ढंग और उलटफेर के लिए जानी जाती रही है. लालू प्रसाद यादव, रामविलास पासवान और नीतीश कुमार जैसे दिग्गजों के इर्द-गिर्द दशकों तक सिमटी रही बिहार की सियासत में अब एक नया अध्याय जुड़ रहा है. 2025 के विधानसभा चुनाव से पहले, पिछले सात महीनों में बिहार में चार नए राजनीतिक दलों ने जन्म लिया है. प्रशांत किशोर, आरसीपी सिंह, शिवदीप वामनराव लांडे और ई आईपी गुप्ता जैसे नए चेहरे अपनी-अपनी सियासी पारी शुरू करने को तैयार हैं. सवाल यह है कि क्या यह नए दलों का उभार महज एक संयोग है, या फिर बिहार की सियासत में कोई बड़ा प्रयोग हो रहा है? आइए, इस विषय को विस्तार से डिकोड करते हैं.

बिहार में नए दलों की बहार

बिहार की सियासत में अचानक नई पार्टियों की बाढ़-सी आ गई है. अक्टूबर 2024 से अप्रैल 2025 के बीच चार नए दल अस्तित्व में आए हैं, और हर दल अपने-अपने तरीके से बिहार की जनता का दिल जीतने की जुगत में है. सबसे पहले बात करते हैं प्रशांत किशोर की, जिन्होंने 2 अक्टूबर 2024 को जन सुराज पार्टी की नींव रखी. चुनावी रणनीतिकार से राजनेता बने प्रशांत ने बिहार की सभी 243 सीटों पर चुनाव लड़ने का ऐलान कर सबको चौंका दिया है. उनका दावा है कि वे जाति-धर्म की राजनीति से हटकर बिहार को एक नई दिशा देंगे.

इसके बाद बारी आई आरसीपी सिंह की, जो कभी नीतीश कुमार के करीबी हुआ करते थे. जेडीयू से निष्कासन और बीजेपी के साथ असहज रिश्तों के बाद, 12 नवंबर 2024 को उन्होंने आप सबकी आवाज नाम से अपनी पार्टी बनाई. कुरमी समुदाय के बड़े नेता के तौर पर उनकी नजर अपने समाज के वोटों के साथ-साथ नीतीश विरोधी वोटबैंक पर है.

फिर आए शिवदीप वामनराव लांडे, एक पूर्व आईपीएस अधिकारी, जिन्होंने अपनी छवि एक ईमानदार और जुझारू अफसर के तौर पर बनाई. 8 अप्रैल 2025 को उन्होंने हिन्द सेना नाम से नया दल बनाया और सभी सीटों पर उम्मीदवार उतारने की घोषणा की. लांडे की सियासत का आधार है युवा और बदलाव की चाह रखने वाले वोटर.

आखिरी और सबसे ताजा नाम है ई आईपी गुप्ता का, जिन्होंने 13 अप्रैल 2025 को पटना के गांधी मैदान में एक विशाल रैली के जरिए इंडियन इंकलाब पार्टी के गठन का ऐलान किया. गुप्ता का फोकस पान (तांती-ततवा) समाज पर है, जो बिहार में सामाजिक और राजनीतिक रूप से हाशिए पर रहा है. उनकी रैली में हजारों लोग जुटे. उनका नारा है, “अब सत्ता में हिस्सेदारी, नहीं तो संघर्ष.”

संयोग या सियासी प्रयोग?

बिहार में सियासत का इतिहास देखें तो यह साफ है कि यहां की राजनीति हमेशा से जातिगत समीकरणों और गठबंधनों के इर्द-गिर्द घूमती रही है. नीतीश कुमार का एनडीए और तेजस्वी यादव का महागठबंधन लंबे समय से बिहार की सियासत के दो बड़े ध्रुव रहे हैं. लेकिन इन नए दलों का उभार एक सवाल खड़ा करता है कि क्या यह सब महज संयोग है या फिर बिहार की सियासत में कोई नया प्रयोग हो रहा है?

संयोग की बात करें तो यह संभव है कि अलग-अलग नेताओं ने अपने-अपने कारणों से नई पार्टी बनाई हो. प्रशांत किशोर अपनी रणनीतिक छवि को सियासी नेतृत्व में बदलना चाहते हैं. आरसीपी सिंह नीतीश के साथ पुरानी रंजिश का हिसाब बराबर करना चाहते हैं. शिवदीप लांडे अपनी प्रशासनिक छवि को सियासी मंच पर भुनाना चाहते हैं, और ई आईपी गुप्ता अपने समाज की उपेक्षा का बदला सत्ता में हिस्सेदारी के जरिए लेना चाहते हैं. लेकिन सात महीने में चार दलों का बनना इतना आसान संयोग नहीं लगता.

सियासी प्रयोग की बात करें तो यह ज्यादा तर्कसंगत लगता है. बिहार की जनता, खासकर युवा, बेरोजगारी, पलायन और भ्रष्टाचार जैसे मुद्दों से त्रस्त है. नीतीश और लालू जैसे पुराने नेताओं की सियासत अब कई लोगों को घिसी-पिटी लगने लगी है. ऐसे में नए दल एक वैकल्पिक नेतृत्व देने की कोशिश कर रहे हैं. प्रशांत और लांडे जैसे नेता ‘साफ-सुथरी सियासत’ और ‘विकास’ की बात कर रहे हैं, जबकि गुप्ता और सिंह अपने-अपने जातीय वोटबैंक को एकजुट कर सियासी ताकत बनना चाहते हैं.

इंडियन इंकलाब पार्टी

ई आईपी गुप्ता की इंडियन इंकलाब पार्टी ने भी बिहार की सियासत में हलचल मचाई है. 13 अप्रैल को गांधी मैदान में उनकी रैली ने सबका ध्यान खींचा. पान समाज, जिसे तांती-ततवा के नाम से भी जाना जाता है, बिहार में एक बड़ा लेकिन उपेक्षित समुदाय है. गुप्ता ने अपनी रैली में साफ कहा, “हमारी आवाज को अब तक दबाया गया, लेकिन अब हम सत्ता में हिस्सा मांगेंगे. यह रैली शक्ति प्रदर्शन नहीं, इतिहास रचने की शुरुआत है.”

गुप्ता ने नीतीश, लालू और पासवान जैसे नेताओं को निशाने पर लिया. उन्होंने कहा कि ये नेता तभी मजबूत हुए जब उनके समाज ने एकजुट होकर साथ दिया. अब पान समाज भी अपनी ताकत दिखाएगा. उनकी पार्टी का वादा है कि वे हर सीट पर मजबूती से लड़ेंगे और आरक्षण, सम्मान और सत्ता में हिस्सेदारी के लिए संघर्ष करेंगे. यह साफ है कि गुप्ता की नजर अति पिछड़ा वर्ग (EBC) के वोटों पर है, जो बिहार में करीब 36% हैं और किसी भी दल के लिए गेम-चेंजर साबित हो सकते हैं.

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पुराने बनाम नए खिलाड़ी

बिहार की सियासत में इस बार का मुकाबला बेहद दिलचस्प होने वाला है. एक तरफ नीतीश कुमार का एनडीए है, जिसमें बीजेपी, चिराग पासवान की एलजेपी और जीतन राम मांझी की HAM शामिल हैं. दूसरी तरफ तेजस्वी यादव का महागठबंधन है, जिसमें RJD, कांग्रेस, VIP और वामपंथी दल हैं. लेकिन इन दो ध्रुवों के बीच अब नए दल अपनी जगह बनाने की कोशिश में हैं.

प्रशांत किशोर और शिवदीप लांडे युवाओं और बदलाव की चाह रखने वालों को लुभा रहे हैं. दोनों का दावा है कि वे जात-पात की सियासत से हटकर बिहार को नया नेतृत्व देंगे. वहीं, आरसीपी सिंह और ई आईपी गुप्ता अपने-अपने जातीय समीकरणों को साधकर सियासी जमीन तैयार कर रहे हैं. सवाल यह है कि क्या ये नए दल वाकई कुछ बड़ा कर पाएंगे, या फिर सिर्फ वोट काटकर पुराने दलों की मदद करेंगे?

वोटबैंक का बंटवारा

पिछले कुछ चुनावों का इतिहास देखें तो बिहार में छोटे दलों ने कई बार बड़े गठबंधनों का खेल बिगाड़ा है. 2020 में AIMIM ने सीमांचल में RJD को नुकसान पहुंचाया था. हाल के उपचुनावों में जन सुराज ने भी RJD के वोट काटे, जिसका फायदा NDA को हुआ. अब चार नए दलों के आने से यह साफ है कि वोटों का बंटवारा होगा. खासकर युवा वोटर, जो तेजस्वी, प्रशांत और लांडे तीनों को आकर्षक लग रहे हैं, इनके बीच बंट सकते हैं.

EBC और दलित वोटों पर गुप्ता और प्रशांत की नजर है, जबकि AIMIM और बसपा जैसे दल मुस्लिम और दलित वोटरों को अपने पाले में लाने की कोशिश में हैं. अगर ये नए दल एकजुट होकर किसी गठबंधन के साथ जाते हैं, तो बात बन सकती है. लेकिन अभी की स्थिति में ये सभी अलग-अलग राह पर हैं, जिसका सबसे ज्यादा फायदा NDA को हो सकता है.

2025 का बिहार विधानसभा चुनाव कई मायनों में ऐतिहासिक होने वाला है. नए दलों का उभार बिहार की जनता को ज्यादा विकल्प देगा, लेकिन यह भी सच्चाई है कि सियासी सफलता के लिए संगठन, संसाधन और समीकरण जरूरी हैं. प्रशांत किशोर के पास रणनीति है, लेकिन संगठन की कमी खल सकती है. लांडे की छवि मजबूत है, लेकिन सियासी अनुभव कम है. गुप्ता और सिंह के पास जातीय आधार है, लेकिन क्या वे इसे बड़े वोटबैंक में बदल पाएंगे? बिहार की सियासत में यह नया रंग कितना चटकीला होगा, यह तो वक्त ही बताएगा. लेकिन इतना तय है कि ये नए दल बिहार की सियासत को एक नया आयाम दे रहे हैं.

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