2 साल तक ‘पदयात्रा’, गांधी मैदान में ‘शक्ति प्रदर्शन’…फिर भी बिहार में प्रशांत किशोर की राह आसान नहीं! समझिए क्यों
प्रशांत किशोर
Bihar Politics: बिहार में 2025 के विधानसभा चुनाव की सरगर्मी शुरू हो चुकी है. इस बार चर्चा का केंद्र हैं प्रशांत किशोर, जिन्हें लोग प्यार से ‘पीके’ कहते हैं. कभी देश के बड़े-बड़े नेताओं के लिए चुनावी रणनीति बनाने वाले प्रशांत किशोर अब अपनी पार्टी ‘जन सुराज’ के साथ बिहार की सियासत में ताल ठोक रहे हैं.
11 अप्रैल 2025 यानी आज पटना के गांधी मैदान में प्रशांत किशोर की जन सुराज पार्टी की ‘बदलो बिहार रैली’ से बिहार की सियासत में हलचल मचने की उम्मीद है. ये रैली पीके की उस रणनीति का हिस्सा है, जिसमें वे बिहार के युवाओं, शिक्षा, और रोजगार जैसे मुद्दों को उठाकर जनता को एक नया विकल्प देने की कोशिश कर रहे हैं.
अगर रैली में भारी भीड़ जुटती है, तो ये जन सुराज की ताकत का प्रदर्शन होगा और RJD, JDU), और BJP के लिए चुनौती बन सकता है, खासकर मुस्लिम और अति पिछड़ा वर्ग के वोटरों को लुभाने में. हालांकि, इसका असली असर तब दिखेगा, जब ये भीड़ वोटों में बदलेगी, क्योंकि बिहार की जातिगत समीकरणों को तोड़ना पीके के लिए आसान नहीं होगा. खैर, सवाल ये है कि क्या वे बिहार की जटिल राजनीति में अपनी छाप छोड़ पाएंगे? क्या उनके लिए समीकरण बन रहे हैं? आइए, इसे आसान भाषा में विस्तार से समझते हैं कि पीके का जलवा कितना रंग ला सकता है.
243 सीटों पर चुनाव लड़ने की तैयारी में जन सुराज
प्रशांत किशोर कोई नया नाम नहीं हैं. 2014 में नरेंद्र मोदी की ऐतिहासिक जीत से लेकर नीतीश कुमार, ममता बनर्जी, और अरविंद केजरीवाल जैसे नेताओं की चुनावी कामयाबी के पीछे उनकी रणनीति का बड़ा हाथ रहा है. उनकी कंपनी I-PAC ने कई पार्टियों को जीत का फॉर्मूला दिया. लेकिन अब पीके ने रणनीतिकार की कुर्सी छोड़कर खुद मैदान में उतरने का फैसला किया है. उनकी पार्टी ‘जन सुराज’ 2025 के बिहार विधानसभा चुनाव में सभी 243 सीटों पर उम्मीदवार उतारने की तैयारी में है.
वे बिहार की सियासत को बदलने का दावा कर रहे हैं. उनका नारा है, “बिहार को विफल राज्य से निकालकर समृद्ध बनाना”. शिक्षा, रोजगार, और शराबबंदी जैसे मुद्दों पर उनकी खुली बातें युवाओं और आम लोगों को आकर्षित कर रही हैं. लेकिन क्या ये बातें वोटों में बदल पाएंगी?
जटिल समीकरणों का खेल
बिहार की राजनीति को समझना आसान नहीं. यहां जाति, धर्म, और क्षेत्रीय समीकरण वोटों का आधार बनाते हैं. यहां की प्रमुख पार्टियाँ और उनके वोट बैंक कुछ इस तरह हैं.
RJD: लालू प्रसाद यादव और तेजस्वी यादव की पार्टी. इसका मजबूत आधार यादव (लगभग 14%) और मुस्लिम (17%) वोटरों में है. RJD महागठबंधन (कांग्रेस, वामपंथी दलों के साथ) का हिस्सा है और बेरोजगारी, गरीबी जैसे मुद्दों को उठाता है.
JDU (जनता दल यूनाइटेड): नीतीश कुमार की पार्टी, जो NDA (BJP के साथ) में है. नीतीश का कोर वोट बैंक कुर्मी और कोइरी जैसी ओबीसी जातियां हैं. साथ ही, उनकी शराबबंदी और महिला सशक्तिकरण की नीतियों ने महिला वोटरों में उनकी पकड़ बनाई है.
BJP: ऊंची जातियों (ब्राह्मण, राजपूत, बनिया) और गैर-यादव OBC (विशेषकर EBC – अति पिछड़ा वर्ग) में BJP का प्रभाव है. राम मंदिर और हिंदुत्व जैसे मुद्दे इसके वोटरों को जोड़ते हैं.
AIMIM और छोटी पार्टियां: असदुद्दीन ओवैसी की AIMIM सीमांचल क्षेत्र में मुस्लिम वोटरों को लुभाती है. इसके अलावा, LJP (चिराग पासवान) और HAM (जीतन राम मांझी) जैसे दल दलित वोटों को प्रभावित करते हैं.
इन सबके बीच प्रशांत किशोर की जन सुराज नई-नवेली है.
प्रशांत किशोर की रणनीति
बिहार में जहां जाति ही वोट की बुनियाद है, वहां पीके जाति की राजनीति से हटकर विकास की बात कर रहे हैं. उनका कहना है, “जाति के नाम पर वोट देने से बिहार पिछड़ा”. उनकी कोशिश है कि युवा और मध्यम वर्ग उनकी इस सोच से जुड़े.
हालांकि पीके जाति की राजनीति से बचना चाहते हैं, लेकिन उन्होंने मुस्लिम (17%) और अति पिछड़ा वर्ग (36%) को टारगेट किया है. उनकी योजना है कि इन वर्गों को उनकी आबादी के हिसाब से टिकट दिए जाएं. मसलन, कम से कम 42 मुस्लिम और 75 EBC उम्मीदवार उतारने की बात कही जा रही है. इससे RJD और JDU के वोट बैंक में सेंध लग सकती है.
पीके ने कम से कम 40 सीटों पर महिला उम्मीदवार उतारने का ऐलान किया है. साथ ही, बेरोजगारी और शिक्षा जैसे मुद्दों पर उनकी बातें युवाओं को आकर्षित कर रही हैं. उनकी रैलियों में युवाओं की भीड़ इसका सबूत है.
वहीं, नीतीश कुमार की शराबबंदी नीति को पीके खुलकर निशाना बना रहे हैं. उनका कहना है कि इससे बिहार को आर्थिक नुकसान हुआ और कालाबाजारी बढ़ी. वे इसे खत्म कर उस पैसे को शिक्षा पर खर्च करने की बात कहते हैं. ये मुद्दा ग्रामीण इलाकों में असर डाल सकता है.
सबसे खास बात यह कि पिछले दो साल से पीके बिहार के गांव-गांव में पदयात्रा कर रहे हैं. उनकी कोशिश है कि जनता के बीच उनकी बात सीधे पहुंचे. उनकी रैलियों में भीड़ जुट रही है, जो उनकी बढ़ती लोकप्रियता का संकेत है.
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क्या हैं पीके के सामने चुनौतियां?
हालांकि पीके की रणनीति प्रभावशाली दिखती है, लेकिन बिहार की सियासत में उनकी राह आसान नहीं. उनके सामने कुछ बड़ी चुनौतियां हैं.
दरअसल, 2024 में हुए चार विधानसभा उपचुनावों (तरारी, इमामगंज, बेलागंज, रामगढ़) में जन सुराज को एक भी सीट नहीं मिली. हालांकि उन्हें 10% वोट मिले, लेकिन जीत न मिलना उनके लिए चेतावनी है. कई लोग कह रहे हैं कि रणनीति बनाना और खुद चुनाव लड़ना दो अलग बातें हैं.
बिहार में वोटर जाति के आधार पर बंटे हैं. RJD, JDU, और BJP ने दशकों से अपने-अपने वोट बैंक को मजबूत किया है. पीके का जाति से ऊपर की बात करना आदर्शवादी है, लेकिन क्या ये वोटरों को उनके पारंपरिक गठबंधनों से तोड़ पाएगा? ये बड़ा सवाल है. वहीं, जन सुराज एक नई पार्टी है. इसके पास न तो RJD-BJP जैसा कैडर है और न ही मजबूत स्थानीय संगठन. बिना संगठन के इतने बड़े पैमाने पर चुनाव लड़ना मुश्किल है.
उपचुनावों में पीके की उम्मीदवार चयन की रणनीति पर सवाल उठे. उदाहरण के लिए, तरारी में उनका उम्मीदवार श्रीकृष्ण सिंह बिहार का वोटर ही नहीं निकला, जिसके बाद उम्मीदवार बदलना पड़ा. ऐसी गलतियां उनकी विश्वसनीयता को नुकसान पहुंचा सकती हैं.
RJD, JDU, और BJP जैसे दलों के पास पैसा, संगठन, और अनुभव है. नीतीश कुमार का शासन, तेजस्वी की युवा अपील, और BJP की हिंदुत्व लहर पीके के लिए चुनौती खड़ी कर सकती है.
समीकरण कैसे बन रहे हैं?
अब सवाल ये है कि क्या प्रशांत किशोर के लिए समीकरण बन रहे हैं? कुछ बातें उनके पक्ष में जाती हैं, तो कुछ खिलाफ. आइए, इसे भी विस्तार से समझते हैं. यहां गौर करने वाली बात यह है कि पीके की साफ-सुथरी छवि और विकास की बातें शहरी और युवा वोटरों को पसंद आ रही हैं. उनकी रैलियों में भीड़ इसका सबूत है. अगर पीके मुस्लिम और अति पिछड़ा वोटों को अपनी ओर खींच लेते हैं, तो RJD और JDU को बड़ा नुकसान हो सकता है. खासकर सीमांचल में, जहां मुस्लिम आबादी ज्यादा है, वे AIMIM के वोट भी काट सकते हैं. इसके अलावा पीके नीतीश कुमार की शराबबंदी और लालू परिवार की भ्रष्टाचार की छवि को निशाना बना रहे हैं. अगर वे इसे भुना पाए, तो कुछ वोटर उनके साथ आ सकते हैं.
बिहार के लोग दशकों से RJD, JDU और BJP के बीच ही उलझे हैं. पीके एक नए विकल्प के तौर पर उभर रहे हैं, जो बदलाव चाहने वालों को लुभा सकता है. ये तो हो गई उनके पक्ष की बातें, कुछ बाते उनके विपक्ष में भी है.
वोटों का बिखराव: अगर पीके के वोटर बिखर गए, तो वे किसी भी सीट पर निर्णायक प्रभाव नहीं डाल पाएंगे. इससे NDA या महागठबंधन को फायदा होगा.
सीमित संसाधन: बड़े दलों के सामने पीके की पार्टी के पास संसाधनों की कमी है. प्रचार और संगठन के लिए पैसा और लोग जुटाना उनके लिए चुनौती है.
क्षेत्रीय दलों का दबदबा: सीमांचल में AIMIM, दलित वोटों में LJP और HAM, और यादव-मुस्लिम गठजोड़ में RJD का दबदबा पीके के लिए मुश्किलें खड़ी कर सकता है.
नीतीश का अनुभव: नीतीश कुमार की सियासी चालबाजी को कम आंकना ठीक नहीं. वे बार-बार गठबंधन बदलकर सत्ता में बने रहते हैं. पीके के लिए उन्हें मात देना आसान नहीं होगा.
क्या कहते हैं जानकार?
सियासी जानकारों का मानना है कि प्रशांत किशोर का प्रभाव इस बात पर निर्भर करेगा कि वे कितने वोटरों को अपने साथ जोड़ पाते हैं. अगर वे 10-15% वोट शेयर हासिल कर लेते हैं, तो कई सीटों पर वे किंगमेकर की भूमिका निभा सकते हैं. लेकिन सरकार बनाने के लिए उन्हें कम से कम 100 सीटें चाहिए, जो अभी दूर की कौड़ी लगता है. कुछ लोग कहते हैं कि पीके का असली टेस्ट 2025 में होगा. अगर वे कुछ सीटें जीत लेते हैं, तो भविष्य में उनकी पार्टी बिहार में तीसरे विकल्प के तौर पर उभर सकती है. लेकिन अभी उनकी राह कांटों भरी है.
तो, क्या जलवा दिखा पाएंगे पीके?
प्रशांत किशोर बिहार में बदलाव की हवा लाने की कोशिश कर रहे हैं. उनकी रणनीति, जोश, और साफ छवि उनके पक्ष में हैं. अगर वे युवा, मुस्लिम, और अति पिछड़ा वोटरों को अपनी ओर खींच लेते हैं, तो वे RJD और JDU के लिए सिरदर्द बन सकते हैं. लेकिन बिहार की सियासत इतनी आसान नहीं. यहां जातिगत समीकरण, बड़े दलों का संगठन, और नीतीश जैसे चतुर खिलाड़ी उनकी राह में रोड़े हैं.
उपचुनावों की हार ने दिखाया कि रणनीति बनाना और वोट पाना दो अलग खेल हैं. फिर भी, पीके के पास समय है. अगर वे अपनी गलतियों से सीखकर मजबूत संगठन बनाते हैं और वोटरों का भरोसा जीत लेते हैं, तो वे बिहार में नया इतिहास रच सकते हैं. लेकिन अभी ये कहना जल्दबाजी होगी कि वे गेमचेंजर बन पाएंगे.