सपा ने केवल 5 यादव उम्मीदवार उतारे, क्या अखिलेश यादव ने बदला सियासी पैंतरा?

2014 के बाद से उत्तर प्रदेश की राजनीति में भी राष्ट्रवाद और हिंदुत्व विषय को बढ़ावा मिला और इसके साथ ही यादवों की वर्चस्व वाली राजनीति को तगड़ा झटका भी लगा. हालांकि, समाजवादी पार्टी पर अब तक यादव परस्त पार्टी होने का आरोप लगता रहा है.
अखिलेश यादव

अखिलेश यादव

Lok Sabha Election 2024: अपनी परंपरा से हटकर समाजवादी पार्टी ने लोकसभा चुनाव में परिवार के बाहर से किसी भी यादव उम्मीदवार को मैदान में नहीं उतारा है. पार्टी ने इस बार जिन पांच यादवों को टिकट दिया है वे सभी सैफई परिवार के सदस्य हैं. सियासत के जानकारों की मानें तो यह मुलायम सिंह यादव की रणनीति में एक महत्वपूर्ण बदलाव है, जिन्होंने यादव राजनीति को चरम पर पहुंचाया था.

यूपी की राजनीति को समझने और समझाने वालों का कहना है कि मुलायम सिंह यादव, जो प्रत्येक लोकसभा चुनाव में कई सीटों पर परिवार के भीतर और बाहर से यादव उम्मीदवारों को मैदान में उतारने के लिए जाने जाते हैं, इस बार लगता है कि उनकी जगह अखिलेश के नेतृत्व में एक अलग दृष्टिकोण ने ले लिया है. अब जरा आंकड़ों की बात भी कर लेते हैं.

सैफई परिवार से ही 5 उम्मीदवार

अगर सपा के कैडर की बात करें तो अब तक किसी भी चुनाव में पहले मुलायम सिंह यादव और अब अखिलेश यादव की समाजवादी पार्टी को कई यादव मतदाता वोट देते हैं. ऐसे में इस लोकसभा चुनाव में अखिलेश यादव के इस कदम की परीक्षा होगी. इस बार के लोकसभा चुनाव में सपा कांग्रेस के साथ राज्य की 80 में से 63 सीटों पर चुनाव लड़ रही है. पार्टी ने अब तक केवल पांच यादवों को मैदान में उतारा है. डिंपल यादव जो कि मैनपुरी से मौजूदा सांसद हैं, अखिलेश यादव कन्नौज से, धर्मेंद्र यादव आज़मगढ़ से,अक्षय यादव फिरोजाबाद से और आदित्य यादव, बदायूं से. दिलचस्प बात यह है कि ये सभी एक ही परिवार के हैं.

हालांकि, सपा के मुख्य प्रवक्ता राजेंद्र चौधरी कहते नजर आ जाते हैं कि सीटों का आवंटन पीडीए के सिद्धांत – पिछड़ा, दलित और अलसंख्यक के आधार पर टिकटों का बंटवारा हुआ है. चौधरी ने कहा, “हमारे गठबंधन के ढांचे और पीडीए के सिद्धांत के तहत पांच यादव उम्मीदवारों को टिकट दिया गया है.”

2014-2019 में कितने यादवों को सपा ने दिया था टिकट

2014 के लोकसभा चुनाव में 13 यादवों को टिकट दिया गया था, जिनमें से मुलायम समेत पांच विजयी हुए थे. इसी तरह, 2019 के चुनावों में 11 यादवों को मैदान में उतारा गया. उनमें से परिवार के सभी पांच सदस्यों ने चुनाव जीता और अन्य को हार का सामना करना पड़ा.

अगर गौर से देखा जाए तो एसपी ने अपने घोषित टिकटों में से 8.47% टिकट यादवों को आवंटित किए हैं, जबकि बीएसपी ने अपने घोषित टिकटों में से 9.30% टिकट यादवों को आवंटित किए हैं. इस बीच, भाजपा ने केवल एक यादव उम्मीदवार को उम्मीदवार बनाया है.वहीं बसपा ने चार यादव को उम्मीदवार बनाए हैं.

अखिल भारतीय यादव महासभा के प्रदेश अध्यक्ष अरुण यादव ने कहा कि व्यवहारिक रूप से सभी दलों ने यादवों की उपेक्षा की है. उन्होंने कहा, “अब हमें वोट बैंक के रूप में इस्तेमाल किया जाता है लेकिन प्रतिनिधित्व से वंचित कर दिया जाता है.”उन्होंने संकेत दिया कि राजपूतों की तरह यादवों को भी अब अलग रास्ता चुनना होगा.

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यादव की पार्टी होने का टैग छोड़ना चाहती है सपा

2014 के बाद से उत्तर प्रदेश की राजनीति में भी राष्ट्रवाद और हिंदुत्व विषय को बढ़ावा मिला और इसके साथ ही यादवों की वर्चस्व वाली राजनीति को तगड़ा झटका भी लगा. हालांकि, समाजवादी पार्टी पर अब तक यादव परस्त पार्टी होने का आरोप लगता रहा है. लेकिन अब अखिलेश यादव अपने इस छवि को तोड़ने में जुटे हैं. जिसके लिए उन्होंने सिर्फ पांच यादव समुदाय से प्रत्याशी उतारे हैं. पूर्वांचल में सिर्फ धर्मेंद्र यादव को टिकट दिया है जबकि बाकी सीटों पर गैर-यादव ओबीसी पर दांव खेला है. सपा ने जिन सीट पर यादव प्रत्याशी उतारे हैं, वो सभी मुलायम-अखिलेश परिवार से हैं.

गौर करने वाली बात ये है कि सपा साल 2024 के लोकसभा चुनाव में पीडीए फॉर्मूले पर सियासी बिसात बिछाने में जुटी है. अब तक सपा की घोषित टिकटों में महज 7 फीसदी यादव चेहरे हैं. 2014 के अनुपात में यह आधा और 2019 के मुकाबले महज एक-तिहाई है. इसके जिन पांच टिकट यादवों को मिले हैं, वे सभी मुलायम परिवार के ही हैं. पार्टी अब तक यादवों से अधिक टिकट कुर्मी-पटेल को दे चुकी है. सपा के लिए कहीं यादव समुदाय को नजर अंदाज करना सियासी तौर पर महंगा न पड़ा जाए. सपा का यह दांव अब लोकसभा चुनाव 2024 में क्या गुल खिलाती है ये देखना दिलचस्प होगा.

 

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