प्रयागराज से काशी ही क्यों जाते हैं अखाड़े और साधु-संत? जानिए इस धार्मिक यात्रा का रहस्य!

7 फरवरी से ही साधु-संतों का काशी की ओर रुख करना शुरू कर दिया है. ये साधु-संत महाशिवरात्रि तक काशी के विभिन्न घाटों पर प्रवास करेंगे. इन घाटों का विशेष महत्व है, जैसे निरंजनी घाट, महानिरवानी घाट, जूना घाट आदि. यहां पर अलग-अलग अखाड़े के साधु-संत अपने-अपने नाम से प्रसिद्ध स्थानों पर ठहरते हैं और वहां भगवान शिव की आराधना करते हैं.
Maha Kumbh 2025

Maha Kumbh 2025

Maha Kumbh 2025: प्रकृति की अद्भुत शक्तियों और धार्मिक आस्थाओं का समागम भारत में बहुत सी ऐसी परंपराओं में देखने को मिलता है, जिनकी गूढ़ता और भव्यता से हर कोई प्रभावित होता है. एक ऐसी ही परंपरा है, जो प्रयागराज महाकुंभ से जुड़ी हुई है और इसमें अखाड़े, साधु-संत और धर्माचार्य वाराणसी यानी काशी का रुख करते हैं. यह यात्रा खासकर महाशिवरात्रि तक होती है.

प्रयागराज से वाराणसी का रुख क्यों?

जब हम प्रयागराज महाकुंभ की बात करते हैं, तो यह हर 12 साल में एक बार आयोजित होता है और दुनिया भर से लाखों साधु-संत, अखाड़े और श्रद्धालु यहां गंगा में डुबकी लगाने के लिए आते हैं. लेकिन इस महाकुंभ के बाद इन साधु-संतों का अगला गंतव्य काशी वाराणसी होता है, जो हिंदू धर्म के सबसे महत्वपूर्ण तीर्थस्थलों में से एक है.

अब सवाल यह उठता है कि आखिर क्यों ये साधु-संत प्रयागराज से काशी जाते हैं? इसका उत्तर पौराणिक और धार्मिक दृष्टिकोण में छिपा हुआ है. काशी, जिसे हम भगवान शिव की नगरी भी कहते हैं, ना केवल द्वादश ज्योतिर्लिंगों में से एक महत्वपूर्ण स्थल है, बल्कि यह पुरानी धार्मिक परंपराओं और संस्कृतियों का भी केंद्र रहा है. यहां विशेष रूप से महाशिवरात्रि के दौरान, एक बहुत बड़ी धार्मिक घटना होती है.

महाशिवरात्रि तक काशी में प्रवास

7 फरवरी से ही साधु-संतों का काशी की ओर रुख करना शुरू कर दिया है. ये साधु-संत महाशिवरात्रि तक काशी के विभिन्न घाटों पर प्रवास करेंगे. इन घाटों का विशेष महत्व है, जैसे निरंजनी घाट, महानिरवानी घाट, जूना घाट आदि. यहां पर अलग-अलग अखाड़े के साधु-संत अपने-अपने नाम से प्रसिद्ध स्थानों पर ठहरते हैं और वहां भगवान शिव की आराधना करते हैं. काशी में इन साधु-संतों की यात्रा का एक महत्वपूर्ण हिस्सा होता है – पेशवाई और शोभायात्रा, जो हर वर्ष काशी के गंगा घाटों पर निकाली जाती है.

इन यात्रा के दौरान, यह साधु-संत भगवान शिव के साथ होली खेलते हैं, जो एक बहुत ही आध्यात्मिक और उल्लासपूर्ण परंपरा है. होली का यह उत्सव काशी की धार्मिक और सांस्कृतिक धारा से जुड़ा हुआ होता है, और साधु-संत इसके माध्यम से अपनी आस्था को प्रकट करते हैं.

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काशी का महत्व

प्राचीन सनातन संस्कृति में काशी का विशेष महत्व है. यह न केवल भगवान शिव का घर है, बल्कि यह एक ऐसी भूमि है, जहां साधना और तपस्या की परंपराएं कई सदियों से चली आ रही हैं. जब साधु-संत प्रयागराज महाकुंभ के बाद काशी पहुंचते हैं, तो यह उनके धार्मिक जीवन का एक महत्वपूर्ण मोड़ होता है. काशी में भगवान विश्वनाथ के दर्शन और उनकी पूजा करने के बाद ही ये साधु संत फिर से अपनी यात्रा पर निकलते हैं. यह यात्रा शारीरिक और मानसिक शुद्धि के साथ-साथ भगवान शिव से आशीर्वाद प्राप्त करने का एक माध्यम बनती है.

क्यों काशी?

प्रयागराज और काशी दोनों का अपना धार्मिक और ऐतिहासिक महत्व है. प्रयागराज को भी धार्मिक दृष्टिकोण से बेहद महत्वपूर्ण माना जाता है. लेकिन काशी के लिए एक और विशेष बात यह है कि इसे भगवान शिव की नगरी के रूप में जाना जाता है. हिंदू धर्म के अनुयायी मानते हैं कि काशी में मृत्यु के बाद मोक्ष की प्राप्ति होती है. यही कारण है कि काशी की यात्रा हर हिंदू के लिए एक महत्वपूर्ण धार्मिक कृत्य है, खासकर उन साधु-संतों के लिए जिनका जीवन तपस्या और साधना में व्यतीत होता है.

आखिरकार, महाशिवरात्रि के बाद क्या होता है?

महाशिवरात्रि तक काशी में प्रवास करने के बाद, साधु-संत वहां से प्रस्थान करते हैं. यह एक समाप्ति बिंदु होता है, जहां वे भगवान शिव के साथ होली खेलकर, अपनी यात्रा को समाप्त करते हैं. इस दौरान काशी के गंगा घाटों पर रौनक और धार्मिक उल्लास की कोई कमी नहीं होती. यह एक ऐसा समय होता है, जब काशी में साधु-संतों की उपस्थिति से हर गली और हर घाट में धर्म और भक्ति का वातावरण बन जाता है.

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