नीतीश को ‘शिंदे’ बनाना आसान नहीं…फिर भी धीरे-धीरे बिहार में ‘बड़ा भाई’ बन रही है BJP!
पीएम मोदी, नीतीश कुमार, अमित शाह, जेपी नड्डा
Bihar Politics: हाल ही में मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के मंत्रिमंडल विस्तार ने राज्य की राजनीति में हलचल मचाई है. यह विस्तार विधानसभा चुनाव से कुछ महीने पहले हुआ है, जो सामान्यत: कोई अचरज की बात नहीं मानी जाती. चुनावी मौसम के नजदीक आने के साथ सभी पार्टियां अपनी राजनीतिक स्थिति को मजबूत करने के लिए ऐसे कदम उठाती रहती हैं. लेकिन इस विस्तार में जो खास बात है, वह यह है कि नीतीश कुमार ने केवल बीजेपी के 7 विधायकों को मंत्री बनाया है, जबकि पहले गठबंधन के समय तय हुआ था कि दोनों दलों के विधायकों की संख्या के अनुपात में मंत्रिमंडल में स्थान मिलेगा.
नीतीश और बीजेपी के बीच समझौता
नीतीश कुमार और बीजेपी के बीच एक समझौता था, जिसमें कहा गया था कि दोनों दलों के विधायकों के हिसाब से मंत्री बनाए जाएंगे. जेडीयू के पास फिलहाल 45 विधायक हैं, जबकि बीजेपी के पास 80 विधायक हैं. इस हिसाब से जेडीयू को 13 मंत्री मिल चुके थे, और बीजेपी को 15 मंत्री मिले थे. बिहार बीजेपी के अध्यक्ष और राजस्व मंत्री दिलीप जायसवाल ने जब इस्तीफा दिया, तो बीजेपी के पास 7 मंत्री का अतिरिक्त कोटा बन गया. इस हिसाब से देखा जाए तो यह कोई असामान्य या रार वाली बात नहीं है, लेकिन सवाल यह उठता है कि अगर यह समझौता पहले से था, तो अब तक मंत्रिमंडल का विस्तार क्यों नहीं हुआ था?
क्या पीएम मोदी की बिहार यात्रा के दौरान नीतीश कुमार को पीएम से मिले प्यार का यह परिणाम है? यह सवाल इसलिए उठ रहा है क्योंकि नीतीश कुमार के पास कोई मजबूरी नहीं थी कि उन्हें सिर्फ बीजेपी के विधायकों को ही मंत्री बनाना था. अगर वह चाहते तो कुछ जेडीयू के विधायकों को भी मंत्री बना सकते थे, लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया. इसी कारण यह चर्चा हो रही है कि नीतीश कुमार ने बीजेपी के सामने सरेंडर कर दिया है.
क्या धीरे-धीरे बिहार में ‘बड़ा भाई’ बन रही है बीजेपी?
इस मंत्रिमंडल विस्तार के बाद यह सवाल उठता है कि क्या बीजेपी धीरे-धीरे बिहार में ‘बड़े भाई’ की भूमिका में आ रही है? बीजेपी और जेडीयू दोनों ही गठबंधन सरकार का हिस्सा हैं, लेकिन अब बीजेपी का प्रभाव जेडीयू पर ज्यादा दिख रहा है. दोनों पक्षों से यह सफाई आ रही है कि पहले मंत्रिमंडल गठन में कुछ स्थान खाली रह गए थे, जिन्हें अब भर दिया गया है. इस विस्तार को लेकर यह दावा किया जा रहा है कि इसमें कुछ नया नहीं है, लेकिन बीजेपी की अपने सहयोगी दलों पर हावी होने की रणनीति कोई छुपी हुई बात नहीं है. यह स्थिति महाराष्ट्र में भी देखी गई थी, जहां बीजेपी ने शिवसेना (शिंदे गुट) को अपने कब्जे में किया था.
पहले वक्त बदला, फिर जज्बात!
अगर हम इतिहास की बात करें, तो 20 साल पहले जेडीयू के पास बीजेपी से दोगुना अधिक मंत्री हुआ करते थे, लेकिन अब स्थिति पूरी तरह बदल चुकी है. 2020 में जेडीयू के पास 19 मंत्री थे और बीजेपी के पास सिर्फ 7 मंत्री. धीरे-धीरे जेडीयू के मंत्री घटते गए, और बीजेपी के मंत्री बढ़ते गए. आज जेडीयू के मंत्री सिर्फ 13 हैं, जबकि बीजेपी के 21 मंत्री हैं. इससे यह साफ हो रहा है कि जेडीयू की स्थिति कमजोर हो रही है, और बीजेपी का दबदबा बढ़ रहा है.
नीतीश कुमार के लिए यह सवाल भी अहम है कि क्या उन्हें यह नहीं समझ आ रहा कि अगर मंत्रिमंडल में उनकी पार्टी का महत्व कम होगा, तो आने वाले समय में उनकी अपनी राजनीतिक स्थिति भी कमजोर हो सकती है. बीजेपी के पास ज्यादा मंत्री होंगे, तो इसका असर टिकट बंटवारे पर भी पड़ेगा. इसके साथ ही, चुनाव में जीतने की संभावना भी बीजेपी के लिए ज्यादा होगी. इसका मतलब यह है कि नीतीश कुमार ने यह मान लिया है कि अब बीजेपी को बड़े भाई की भूमिका देनी ही होगी, चाहे वह चाहें या न चाहें.
क्या नीतीश को शिंदे बना रही है बीजेपी?
यह कहना बहुत आसान है कि बिहार में बीजेपी नीतीश कुमार के साथ वही व्यवहार कर सकती है जैसा कि महाराष्ट्र में एकनाथ शिंदे के साथ किया गया था. 2020 में जेडीयू के पास बीजेपी से कम विधायक थे, फिर भी नीतीश कुमार मुख्यमंत्री बने. उसी तरह महाराष्ट्र में भी बीजेपी के पास शिवसेना शिंदे गुट से दोगुने विधायक थे, लेकिन सीएम एकनाथ शिंदे को बनाया गया था. हालांकि, विधानसभा चुनावों में बीजेपी को अधिक सीटें मिलीं.
इसका मतलब यह है कि बीजेपी और जेडीयू के गठबंधन में नीतीश कुमार की कुर्सी पर खतरा मंडरा सकता है, जैसा कि महाराष्ट्र में एकनाथ शिंदे के साथ हुआ. लेकिन नीतीश कुमार और एकनाथ शिंदे की तुलना करना पूरी तरह से सही नहीं होगा. नीतीश कुमार भारतीय राजनीति के कद्दावर नेताओं में से एक हैं, और उन्होंने कभी प्रधानमंत्री बनने की भी कोशिश की थी. यदि आज नीतीश कुमार इंडिया गठबंधन का हिस्सा होते, तो उन्हें प्रधानमंत्री पद का एक प्रमुख दावेदार माना जाता. देशभर में विपक्षी दलों को एकजुट करने की योजना नीतीश कुमार ने ही बनाई थी.
नीतीश कुमार का राजनीतिक इतिहास और उनकी कार्यशैली एकनाथ शिंदे से बिल्कुल अलग है. नीतीश कुमार ने हमेशा अपने राज्य में एक मजबूत वोट बैंक तैयार किया है, विशेष रूप से अतिपिछड़ों के बीच. इसके कारण वह बिहार में पिछले दो दशकों से सत्ता में हैं. उनकी राजनीतिक स्थिति इतनी मजबूत है कि बीजेपी और आरजेडी जैसी बड़ी पार्टियां भी उनके सामने काम करने के लिए मजबूर रहती हैं.
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बिहार बीजेपी में कोई फडणवीस नहीं!
महाराष्ट्र की राजनीति में बीजेपी के पास देवेंद्र फडणवीस जैसे नेता हैं, जो न केवल राज्य में, बल्कि पूरे देश में जाने जाते हैं. फडणवीस की मेहनत और छवि ने उन्हें बीजेपी और आरएसएस में एक मजबूत स्थान दिलवाया है. वहीं, बिहार में बीजेपी के पास ऐसा कोई नेता नहीं है जो नीतीश कुमार के बराबरी कर सके. यहां तक कि बिहार के उपमुख्यमंत्रियों सम्राट चौधरी और विजय कुमार सिन्हा की चमक भी नीतीश कुमार के सामने फीकी है.
वहीं, महाराष्ट्र की राजनीति में कई छोटे-बड़े दलों का वर्चस्व है, लेकिन बिहार में स्थिति बिल्कुल अलग है. बिहार में आरजेडी एक सशक्त विपक्षी पार्टी के रूप में मौजूद है, और उसे नजरअंदाज करना बीजेपी के लिए कठिन है. 2020 के चुनावों में एनडीए को महागठबंधन से मुकाबला करते हुए मुश्किल से जीत मिली थी. बिहार में बीजेपी और जेडीयू मिलकर भी आरजेडी से मुकाबला करने में कठिनाई महसूस करते हैं.
इसलिए, बीजेपी के लिए नीतीश कुमार को आगे रखना जरूरी है, क्योंकि वह आरजेडी और अन्य विपक्षी दलों के खिलाफ गठबंधन को एकजुट रखते हैं. यही कारण है कि बिहार में बीजेपी को नीतीश कुमार के नेतृत्व की जरूरत है, ताकि राज्य में अपनी स्थिति को मजबूत किया जा सके और चुनावों में जीत हासिल की जा सके.
हालांकि बिहार में हालिया मंत्रिमंडल विस्तार को लेकर कई सवाल उठ रहे हैं, लेकिन यह साफ है कि नीतीश कुमार और बीजेपी के बीच एक नई राजनीतिक स्थिति बन रही है. नीतीश कुमार ने भले ही बीजेपी को कुछ ज्यादा महत्त्व दिया हो, लेकिन उनका राजनीतिक कद अब भी बहुत मजबूत है. आने वाले समय में यह देखना दिलचस्प होगा कि बिहार में सत्ता की राजनीति कैसे बदलती है और क्या नीतीश कुमार का प्रभाव आगे भी बरकरार रहेगा.