11 साल, 6 चुनाव और हर बार ‘खाली हाथ’…समझिए कांग्रेस का ‘दिल्ली ड्रामा’

Delhi Election Result: 11 साल, 3 लोकसभा चुनाव और 2 विधानसभा चुनावों के बाद भी कांग्रेस दिल्ली में अपनी पहचान क्यों नहीं बना पाई? अगर इस सवाल का जवाब ढूंढें तो जो सबसे पहले खड़ा होता है, वह है कांग्रेस की ‘आदतन गलती’ और नितांत निर्णय न लेने की बीमारी. दिल्ली चुनाव 2025 में एक […]
Rahul Gandhi

राहुल गांधी और मल्लिकार्जुन खड़गे

Delhi Election Result: 11 साल, 3 लोकसभा चुनाव और 2 विधानसभा चुनावों के बाद भी कांग्रेस दिल्ली में अपनी पहचान क्यों नहीं बना पाई? अगर इस सवाल का जवाब ढूंढें तो जो सबसे पहले खड़ा होता है, वह है कांग्रेस की ‘आदतन गलती’ और नितांत निर्णय न लेने की बीमारी. दिल्ली चुनाव 2025 में एक बार फिर कांग्रेस ने अपनी पुरानी आदत को दोहराया. लिहाजा दिल्ली में पार्टी की स्थिति ‘शून्य’ के आसपास बनी है. पार्टी को न तो आम आदमी पार्टी के खिलाफ सत्ता विरोधी लहर का लाभ उठा पाई, न ही बीजेपी के खिलाफ अपनी कोई रणनीतिक पहल बना सकी. लेकिन क्यों?

कांग्रेस में निर्णयहीनता का संकट

जब सत्ता विरोधी लहर चल रही थी, तब कांग्रेस को एक स्पष्ट रुख अपनाने की जरूरत थी. लेकिन कांग्रेस के भीतर यह तय नहीं हो पाया कि वो आम आदमी पार्टी के खिलाफ कड़ा रुख अपनाए या ना अपनाए. इस असमंजस में सबसे पहले कांग्रेस सांसद अजय माकन ने आम आदमी पार्टी और अरविंद केजरीवाल पर कड़ी टिप्पणियां कीं, उन्हें देशद्रोही तक करार दिया. लेकिन बाद में इंडिया ब्लॉक के सहयोगियों के दबाव के कारण पार्टी के हाईकमान ने माकन की टिप्पणी से किनारा कर लिया और रणनीति में अचानक बदलाव किया. क्या यह राजनीतिक द्वंद्व नहीं था? पार्टी के भीतर के फैसले देर से आए, और जब आए तो बहुत कम प्रभावी साबित हुए.

इस पूरे घटनाक्रम में एक बात साफ नजर आती है. कांग्रेस के नेतृत्व के पास एक स्पष्ट रणनीति का अभाव था, और हर कदम पर वे दबाव में रहे, बजाय इसके कि खुद से कोई निर्णायक कदम उठाते.

राहुल गांधी की ‘अदृश्य’ रणनीति

राहुल गांधी का चुनावी अभियान एक असमंजस की कहानी ही बनकर रह गया. 13 जनवरी को एक रैली में उन्होंने अरविंद केजरीवाल पर हमला बोला था, लेकिन उसके बाद वो दो हफ्तों तक किसी तरह के चुनावी प्रचार से गायब रहे. इस दौरान न तो प्रियंका गांधी ने मोर्चा संभाला, न ही मल्लिकार्जुन खड़गे ने. इससे दिल्ली में कांग्रेस की स्थिति और कमजोर हो गई. सवाल उठता है कि क्या पार्टी में संगठन और नेतृत्व की कमी है?

राहुल गांधी की गैरमौजूदगी का असर यह हुआ कि कांग्रेस ने दिल्ली की नब्ज को सही से पकड़ा ही नहीं. सही समय पर अगर निर्णय लिए होते, तो शायद चुनावी नतीजे कुछ और होते. लेकिन कांग्रेस ने देर से कदम उठाए, और यह असमय निर्णयहीनता उसे भारी पड़ी.

AAP के मुकाबले कांग्रेस की कमजोरी

कांग्रेस ने अपने मूल वोट-बैंक, यानी अल्पसंख्यकों और दलितों, को भी खो दिया. एक समय था जब ये वर्ग कांग्रेस का सबसे बड़ा आधार हुआ करता था, लेकिन आज यह वोट-बैंक आम आदमी पार्टी के साथ मजबूती से खड़ा है. क्यों? क्योंकि कांग्रेस ने इन समुदायों से जुड़े मुद्दों को गंभीरता से नहीं लिया. दिल्ली में हुए शाहीन बाग विरोध, निजामुद्दीन मरकज, और दिल्ली दंगों जैसे मुद्दों पर कांग्रेस के शीर्ष नेताओं की चुप्पी ने इन वर्गों में कांग्रेस के प्रति विश्वास की कमी पैदा की. जब आपके पास नरेंद्र मोदी और अमित शाह जैसे बड़े नेताओं के खिलाफ कोई स्पष्ट विकल्प नहीं हो, तो यह स्वाभाविक है कि लोग AAP का समर्थन करेंगे. क्या कांग्रेस ने इन मुद्दों को समझा? जवाब साफ है – नहीं!

कांग्रेस के भीतर की गुटबाजी

कांग्रेस के भीतर गुटबाजी भी पार्टी के लिए एक बड़ा सिरदर्द बन चुकी है. यह बात इस चुनाव में खासतौर पर देखी गई, जब चुनावी मैदान में कई बड़े नेता असमंजस का शिकार थे. उदाहरण के लिए, कालकाजी से कांग्रेस की उम्मीदवार अलका लांबा शुरू में चुनाव लड़ने के लिए तैयार नहीं थीं. चुनावी लीडरशिप की कमी और गुटबाजी ने कांग्रेस के चुनावी अभियान को एक असंगठित दिशा में धकेल दिया. यहां तक कि संदीप दीक्षित ने स्वीकार किया कि अगर कांग्रेस ने एक साल पहले दिल्ली में संगठन को मजबूत किया होता, तो शायद नतीजे अलग हो सकते थे.

लेकिन अब यह सब सोचने का समय नहीं. इस बार के चुनाव में भी कांग्रेस के पास गहरे संकट से उबरने का कोई ठोस रास्ता नहीं था. पार्टी अब केवल आत्मचिंतन कर सकती है कि आखिर क्यों? 11 सालों में भी कांग्रेस दिल्ली में अपनी पहचान नहीं बना पाई?

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पहचान की खोज में कांग्रेस

कांग्रेस के लिए यह चुनाव एक बड़ा सबक है. उसे यह समझना होगा कि अब सिर्फ पुरानी राजनीतिक चालें और सत्ता में वापसी के प्रयास से काम नहीं चलेगा. पार्टी को नई नीतियों, स्पष्ट नेतृत्व और सबसे बढ़कर, एक स्पष्ट उद्देश्य के साथ सामने आना होगा. वोट बैंक की राजनीति के अलावा, पार्टी को दिल्ली के मुद्दों, खासतौर पर युवाओं, महिलाओं और समाज के हर वर्ग के लिए ठोस कदम उठाने होंगे. वहीं, अगर कांग्रेस अपनी रणनीति में कोई बड़ा बदलाव नहीं करती है तो वह दिल्ली में अपनी पहचान बनाना तो दूर, धीरे-धीरे और कमजोर होती जाएगी.

कांग्रेस के लिए दिल्ली का चुनावी सफर एक बुरी खबर से कम नहीं है. 11 साल, 3 लोकसभा और 2 विधानसभा चुनावों के बाद भी अगर कांग्रेस दिल्ली के मतदाताओं को अपने पक्ष में नहीं खींच पाई, तो यह उसकी असफलताओं की कहानी कहता है. पार्टी की लीडरशिप, निर्णयहीनता, कमजोर संगठन और नीति की कमी ही इसका मुख्य कारण बनकर सामने आई. कांग्रेस अगर अपने आंतरिक मुद्दों को सुलझाकर, सही दिशा में सुधार नहीं करती, तो दिल्ली जैसे महत्वपूर्ण राज्यों में उसकी स्थिति और भी कमजोर हो सकती है.

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