मराठी अस्मिता या खिसकती सियासी जमीन बचाने की चुनौती…20 साल बाद क्यों एक साथ आ रहे हैं उद्धव और राज ठाकरे?

खिसकती सियासी विरासत को बचाने साथ आए ठाकरे बंधु
Thackeray Brothers: महाराष्ट्र की राजनीति में ठाकरे परिवार का नाम हमेशा से मराठी अस्मिता और क्षेत्रीय गौरव के साथ जुड़ा रहा है. शिवसेना के संस्थापक बाला साहेब ठाकरे की विरासत को आगे बढ़ाने वाले उद्धव ठाकरे और राज ठाकरे, जो कभी एक ही मंच पर थे, लेकिन 2005 में दोनों अलग हो गए. राज ठाकरे ने अपनी पार्टी महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना (MNS) बनाई और मराठी मानुष के मुद्दे पर अलग राह पकड़ ली. मगर अब, 20 साल बाद, दोनों ठाकरे बंधु एक बार फिर एक मंच पर नजर आएं हैं.
ठाकरे ब्रदर्स का एक साथ आना किसी ऐतिहासिक घटना से कम नहीं है. आज यानी 5 जुलाई को मुंबई के वर्ली में ‘मराठी विजय रैली’ आयोजित की गई. यह रैली मराठी अस्मिता और हिंदी भाषा विवाद पर केंद्रित है. मगर क्या दोनों भाईयों का एक साथ आने का कारण केवल मराठी अस्मिता से जुड़ा है ? या फिर राज्य में खिसकती बालासाहेब ठाकरे की बनाई सियासी जमीन इसका मुख्य कारण है ?
ठाकरे बंधुओं के बीच 20 साल की सियासी दूरी
उद्धव और राज ठाकरे, दोनों ही बाला साहेब ठाकरे के करीबी रहें. उद्धव उनके बेटे और राज उनके भतीजे हैं. 1990 के दशक में दोनों ने शिवसेना के लिए मिलकर काम किया. पार्टी में अपनी पकड़ मजबूत की. लेकिन 2005 में वैचारिक और नेतृत्व के मुद्दों पर दोनों के बीच मतभेद के कारण राज ठाकरे ने शिवसेना छोड़ दी.
उन्होंने 2006 में महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना (MNS) की स्थापना की, जिसका मुख्य एजेंडा मराठी अस्मिता, महाराष्ट्र के युवाओं को प्राथमिकता और शुरुआती दौर में उत्तर भारतीयों के खिलाफ आक्रामक रुख था.
इस अलगाव के बाद, दोनों भाइयों की राहें जुदा हो गईं. उद्धव ने शिवसेना को हिंदुत्व और मराठी अस्मिता के साथ जोड़कर रखा, जबकि राज ने MNS को मराठी गौरव की तीखी राजनीति के आधार पर खड़ा किया. इस दौरान दोनों की पार्टियों ने अलग-अलग गठबंधनों में काम किया. कई बार एक-दूसरे के खिलाफ तीखी बयानबाजी भी की.
मराठी अस्मिता का मुद्दा
इसी साल महाराष्ट्र में हिंदी भाषा को स्कूलों में अनिवार्य करने की नीति ने सियासी तूफान खड़ा कर दिया. महाराष्ट्र सरकार ने कक्षा 1 से 5 तक मराठी और अंग्रेजी के साथ हिंदी को तीसरी अनिवार्य भाषा बनाने का प्रस्ताव रखा. इस कदम को उद्धव ठाकरे और राज ठाकरे ने ‘मराठी अस्मिता’ पर हमला करार दिया. दोनों नेताओं ने इसे महाराष्ट्र की सांस्कृतिक पहचान को कमजोर करने की कोशिश बताया.
राज ठाकरे ने इस मुद्दे पर आक्रामक रुख अपनाया और MNS कार्यकर्ताओं ने हिंदी भाषी लोगों के खिलाफ कुछ हिंसक घटनाओं को भी अंजाम दिया. जिसकी आलोचना हुई. हालांकि, जन दबाव और विरोध के बाप्रदेश की फडणवीस सरकार ने इस नीति को वापस ले लिया, जिसे ठाकरे बंधुओं ने मराठी एकता की जीत के रूप में प्रचारित किया.
‘मराठी विजय रैली’ में आए साथ
5 जुलाई को मुंबई के वर्ली में NSCI डोम में आयोजित ‘मराठी विजय रैली’ जीत का जश्न मनाने के लिए है. इस रैली में उद्धव और राज ठाकरे पहली बार 20 साल बाद एक मंच पर आए. रैली का आयोजन शिवसेना (यूबीटी) और एमएनएस ने मिलकर किया है. जिसमें पार्टी का झंडा नहीं, बल्कि महाराष्ट्र का प्रतीक दिखा.
यह रैली मराठी भाषा और संस्कृति को बढ़ावा देने का एक मंच रहा. जिसे ठाकरे बंधुओं ने एकता के प्रतीक के रूप में पेश किया. यह रैली ठाकरे परिवार की एकजुटता और उनकी सियासी प्रासंगिकता को फिर से स्थापित करने की कोशिश भी मानी जा रही है. राजनीतिक एक्सपर्ट्स मानते हैं कि उद्धव और राज ने बीजेपी पर हिंदी थोपने का आरोप लगाया है, और इस रैली के जरिए वे सत्ताधारी महायुति गठबंधन को चुनौती देना चाहते हैं.
सियासी मजबूरी या रणनीति?
2024 के महाराष्ट्र विधानसभा चुनावों में उद्धव ठाकरे की शिवसेना (UBT) और राज ठाकरे की MNS, दोनों को करारा झटका लगा था. शिवसेना (UBT) ने 95 सीटों पर चुनाव लड़ा, लेकिन केवल 20 सीटें जीत सकीं, जबकि MNS ने 125 सीटों पर अपने उम्मीदवार उतारे, मगर एक भी सीट नहीं जीत पाई. खासकर राज ठाकरे के बेटे अमित ठाकरे की हार ने उनकी सियासी प्रासंगिकता पर सवाल खड़े किए.
उधर, एकनाथ शिंदे की शिवसेना और बीजेपी के नेतृत्व वाले महायुति गठबंधन ने दो-तिहाई बहुमत हासिल किया, जिसने उद्धव की पार्टी को हाशिए पर धकेल दिया. एक्सपर्ट्स का मानना है कि बीजेपी ने शिवसेना की हिंदुत्व और मराठी अस्मिता की राजनीति को हाईजैक कर लिया है. जिससे ठाकरे परिवार की सियासी जमीन खिसक रही है.
सियासी विरासत पर खतरा
2024 के चुनावों में हार और एकनाथ शिंदे के नेतृत्व वाली शिवसेना के उभरने से उद्धव की सियासी विरासत खतरे में आ गई है. इस साल होने वाली BMC चुनाव उनके लिए आखिरी मौका हो सकता है. MNS की लगातार हार और राज ठाकरे की घटती लोकप्रियता ने उन्हें गठबंधन की ओर धकेला है. एक्सपर्ट्स का मानना है कि दोनों भाई मराठी वोट बैंक को एकजुट कर बीजेपी और शिंदे गुट को चुनौती देना चाहते हैं.
मुंबई महानगरपालिका (BMC) चुनाव में शिवसेना (UBT) का दबदबा रहा है. उद्धव इसे खोना नहीं चाहते और राज के साथ गठबंधन उनकी स्थिति मजबूत कर सकता है. हिंदी भाषा विवाद ने दोनों को मराठी अस्मिता के नाम पर एकजुट होने का मौका दिया है, जो मराठी वोटरों को लामबंद करने में मदद कर सकता है. ठाकरे भाई बाला साहेब की विरासत को एक बार फिर से स्थापित करने की कोशिश में हैं, जिसे शिंदे और बीजेपी ने कमजोर किया है.
क्या है गठबंधन की संभावना?
2025 की शुरुआत से ही उद्धव और राज ठाकरे ने एक-दूसरे के साथ आने के संकेत दिए. अप्रैल 2025 में राज ठाकरे ने एक पॉडकास्ट में कहा कि वह उद्धव के साथ काम करने को तैयार हैं, बशर्ते महाराष्ट्र के हित सर्वोपरि हों. उद्धव ने भी जवाब में कहा था कि मेरी तरफ से कोई झगड़ा नहीं है.’
इसके बाद जून माह में भी उद्धव ने शिवसेना (UBT) के पूर्व नगरसेवकों के साथ बैठक में MNS के साथ गठबंधन की संभावना पर चर्चा की और कहा कि वह कार्यकर्ताओं को विश्वास में लेकर फैसला लेंगे. हालांकि, एक्सपर्ट्स ये कहते हैं कि 20 साल की दूरी और पुरानी कटुता को भुलाना आसान नहीं होगा.
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भविष्य की राह
बीएमसी चुनाव ठाकरे बंधुओं के लिए करो या मरो की स्थिति है. शिवसेना (यूबीटी) का बीएमसी में दबदबा रहा है, और उद्धव इसे बनाए रखना चाहते हैं. राज ठाकरे का साथ उनकी स्थिति को मजबूत कर सकता है, लेकिन गठबंधन की सफलता कार्यकर्ताओं की एकजुटता और रणनीति पर निर्भर करेगी.
मराठी अस्मिता का मुद्दा लंबे समय से ठाकरे परिवार की राजनीति का केंद्र रहा है. इस रैली और संभावित गठबंधन से यह मुद्दा फिर से सुर्खियों में आ सकता है. लेकिन सवाल यह है कि क्या यह एकता सिर्फ सियासी मंच तक सीमित रहेगी, या दीर्घकालिक गठबंधन में तब्दील होगी?
ठाकरे बंधुओं का एकजुट होना बीजेपी के लिए चुनौती बन सकता है, खासकर तब जब वह महाराष्ट्र में अपनी स्थिति मजबूत कर रही है. लेकिन कांग्रेस और एनसीपी के साथ उद्धव के गठबंधन को बनाए रखना भी उनके लिए टेढ़ी खीर होगा.