बिहार कैसे बन गया अपनों के लिए परदेस…क्यों रूठ गई उसकी अपनी जवानी? कलेजे को चीर दे ऐसी है कहानी

सबसे दर्दनाक तस्वीर तब सामने आई जब 2020 में कोविड-19 का लॉकडाउन लगा. अचानक, काम बंद हो गए और लगभग 32 लाख प्रवासी मज़दूर अपने घरों की ओर लौटने लगे. ट्रेनों, बसों और पैदल चलते हुए उन युवाओं को देखकर यह दर्दनाक सच्चाई सामने आ गई कि बिहार की आधी से ज़्यादा जवानी तो अपने घर से दूर परदेस में मजदूरी कर रही है.
Bihar Politics

बिहार की खोई जवानी!

Bihar Politics: एक ऐसी जगह, जहां ज्ञान की गंगा बहती थी, जहां सम्राटों ने पूरे भारत को एक सूत्र में पिरोया और जहां की धरती सोना उगलती थी. यह था हमारा बिहार, जो कभी दुनिया के नक्शे पर शान से चमकता था. पाटलिपुत्र, आज का पटना दुनिया की सबसे भव्य राजधानियों में से एक थी. नालंदा विश्वविद्यालय की लाइब्रेरी में हज़ारों पांडुलिपियां ज्ञान की रोशनी बिखेरती थीं और गुप्त काल में आर्यभट्ट ने शून्य की खोज कर दुनिया को गणित का नया रास्ता दिखाया. गंगा के उपजाऊ खेतों ने बिहार को अनाज का भंडार बनाया और खनिजों ने व्यापार को चमकाया.

लेकिन फिर ऐसा क्या हुआ कि यह गौरवशाली धरती धीरे-धीरे ‘बीमारू राज्य’ कहलाने लगी? कैसे यहां अपराध, बाहुबलियों का राज और पलायन एक कड़वी सच्चाई बन गए? कैसे केंद्र और राज्य सरकारों की नीतियों ने इसे और कमज़ोर कर दिया? और सबसे बड़ा सवाल कि क्या बिहार फिर से उठ खड़ा हो सकता है, अपनी पुरानी शान वापस पा सकता है? आइए, इस उम्मीद से भरी कहानी को परत-दर-परत विस्तार से समझते हैं.

जब अंग्रेजों ने बिहार की समृद्धि को नोच डाला

कहानी शुरू होती है 18वीं सदी से, जब अंग्रेजों की बुरी नज़र बिहार की अपार संपदा पर पड़ी. 1764 में बक्सर की ऐतिहासिक लड़ाई के बाद, अंग्रेजों ने चालाकी से बिहार को अपनी बंगाल प्रेसीडेंसी का हिस्सा बना लिया. यहीं से शुरू हुई लूट की दास्तान.

उन्होंने एक ऐसा कानून थोपा, जिसका नाम था ‘स्थायी बंदोबस्ती’ (1793). यह सुनने में तो स्थायी था, लेकिन इसने बिहार के किसानों को हमेशा के लिए बर्बादी के दलदल में धकेल दिया. इस कानून ने ज़मींदारों को ज़मीन का मालिक बना दिया और गरीब किसानों को, जो पीढ़ी-दर-पीढ़ी ज़मीन जोतते आ रहे थे, अचानक बेदखल कर दिया गया. उन पर भारी-भरकम लगान थोपा गया, जिसे न चुका पाने पर उनकी ज़मीनें छीन ली गईं.

उस दौर में सैकड़ों-हजारों किसान अपनी छोटी सी जमीन को बचाने के लिए ज़मींदारों के आगे गिड़गिड़ाते रहे, लेकिन किसी की एक न चली. उनकी ज़मीन छीन ली गई और वे कर्ज के बोझ तले दब गए. धीरे-धीरे ही सही अंग्रेजों ने इन किसानों को कंगाल बना दिया था. अंग्रेजों ने यहां के खनिजों, जैसे कोयला और अभ्रक का तो जमकर दोहन किया. वे इसे बिहार से निकालकर लंदन और कोलकाता ले जाते रहे, लेकिन कभी बिहार में एक भी बड़ा कारखाना लगाने की जहमत नहीं उठाई. उनकी नीति स्पष्ट थी, बिहार सिर्फ कच्चे माल का स्रोत और उनके मुनाफे का ज़रिया था. इस तरह, बिहार की आर्थिक रीढ़ पर पहला और सबसे गहरा वार हुआ.

केंद्र सरकार की अनदेखी का दर्द

1947 में जब पूरे देश ने आज़ादी का जश्न मनाया, तो बिहार के लिए यह जश्न कुछ फीका-फीका था. आज़ादी तो मिली, लेकिन बिहार को लेकर केंद्र सरकार की नीतियां किसी घातक बीमारी से कम नहीं थीं.

सबसे बड़ी मार थी ‘फ्रेट इक्वलाइजेशन पॉलिसी’ (1952-1993). ज़रा सोचिए, बिहार खनिजों का खजाना था. कोयला, लोहा, बॉक्साइट सब कुछ यहां मौजूद था. इस नीति के जरिए कहा गया कि देश के किसी भी हिस्से में बिहार के खनिज उसी दाम पर मिलेंगे, जिस दाम पर वे बिहार में मिलते हैं. इसका सीधा मतलब क्या हुआ? अगर किसी उद्योगपति को कोयले या लोहे की ज़रूरत है, तो उसे बिहार में फैक्ट्री लगाने की क्या ज़रूरत? वह इसे सस्ते में बिहार से मंगवा सकता था और दिल्ली, मुंबई या अहमदाबाद में अपनी फैक्ट्री लगा सकता था.

इस नीति ने बिहार के औद्योगीकरण की संभावनाओं को पूरी तरह से कुचल दिया. फिर साल 2000 आया, जब बिहार से झारखंड अलग हो गया. यह बिहार के लिए किसी त्रासदी से कम नहीं था, क्योंकि इस विभाजन ने बिहार के 80% खनिज संसाधन छीन लिए. जो थोड़ी-बहुत औद्योगिक संभावनाएं बची थीं, वह भी खत्म हो गईं. सोशल मीडिया पर आज भी यह दर्द दिखाई देता है. X पर एक यूजर ने लिखा, “केंद्र ने बिहार को सिर्फ वोट बैंक समझा, विकास के लिए कभी गंभीर नहीं रहा.”

जब बाहुबलियों ने बिहार को बंधक बना लिया

अगर कोई दौर बिहार को सबसे ज़्यादा दर्द दे गया, तो वह था 1990 का दशक. लालू प्रसाद यादव और राबड़ी देवी के शासनकाल (1990-2005) को आम बोलचाल की भाषा में ‘जंगलराज’ कहा जाने लगा. इस दौर में कानून-व्यवस्था पूरी तरह से ध्वस्त हो गई थी. अपराध, भ्रष्टाचार और बाहुबलियों का आतंक इतना बढ़ गया था कि लोगों का दिन का चैन और रात की नींद हराम हो गई. बाहुबली यानी ऐसे लोग, जिन्होंने अपनी ताकत, बंदूक और आपराधिक रिकॉर्ड के दम पर राजनीति में एंट्री की और बिहार की सत्ता के किंगमेकर बन गए. उनके नाम से ही लोगों में दहशत फैल जाती थी.

मोहम्मद शहाबुद्दीन

सिवान का नाम सुनते ही सबसे पहले शहाबुद्दीन का नाम आता था. हत्या, अपहरण, फिरौती और डकैती के दर्जनों मामले उनके खिलाफ दर्ज थे, फिर भी वे चार बार सांसद और दो बार विधायक बने. उस समय के लोग कहते हैं, “शहाबुद्दीन के समर्थक उन्हें ‘गरीबों का मसीहा’ मानते थे. उस समय पुलिस थी ही नहीं, बाहुबली ही कानून थे.”

आनंद मोहन सिंह

कोसी और सीमांचल क्षेत्र में राजपूतों के बड़े नेता के तौर पर उभरे. गोपालगंज के तत्कालीन डीएम जी. कृष्णैया की हत्या के मामले में उन्हें सज़ा भी हुई. 2023 में उनकी रिहाई ने फिर से बिहार की राजनीति में गर्माहट ला दी थी.

अनंत सिंह

मोकामा के ‘छोटे सरकार’ के नाम से मशहूर अनंत सिंह पर 30 से भी ज़्यादा आपराधिक मामले दर्ज हैं, लेकिन इसके बावजूद वे बार-बार विधायक चुने जाते रहे. बिहार की किस्मत में और भी कई बाहुबली गढ़े गए. इस लिस्ट में सबसे ऊपर पप्पू यादव का नाम है.

आखिर इन बाहुबलियों का प्रभाव इतना क्यों बढ़ा?

पुलिस और प्रशासन की कमज़ोरी: राज्य में कानून-व्यवस्था इतनी लचर थी कि बाहुबलियों को रोकने वाला कोई नहीं था. वे खुलेआम अपराध करते थे.

जातीय समीकरणों का फायदा: इन बाहुबलियों ने अपनी जाति और समुदाय के वोटों को साधने का काम किया. शहाबुद्दीन ने मुस्लिम-यादव समीकरण को मज़बूत किया, तो आनंद मोहन ने राजपूतों के बीच अपनी पैठ बनाई.

‘रॉबिनहुड’ की छवि: कई बाहुबलियों ने अपने क्षेत्र में गरीबों की मदद कर या छोटे-मोटे टूर्नामेंट आयोजित कर अपनी एक ‘रॉबिनहुड’ जैसी छवि बना ली थी. लोग डर के मारे या जातिगत समीकरणों के चलते उनका साथ देते थे.

इन सबका नतीजा ये हुआ कि 1990-2005 के बीच बिहार में अपराध की दर राष्ट्रीय औसत से दोगुनी हो गई थी. 2004 में बिहार में प्रति लाख जनसंख्या पर 144 आपराधिक मामले दर्ज हुए थे. ‘एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स’ (ADR) की 2005 की रिपोर्ट के अनुसार, बिहार विधानसभा के 54% विधायकों पर आपराधिक मामले दर्ज थे. सीधे-सीधे लिखा जाए तो ‘जंगलराज’ में बाहुबलियों ने सियासत को बंधक बना लिया था.”

बिहार की खोई जवानी

जंगलराज का आतंक और उद्योगों की कमी, इन दोनों ने मिलकर बिहार को पलायन का गढ़ बना दिया. 1990 के दशक से ही, लाखों की संख्या में युवा बिहार से बाहर रोज़गार की तलाश में निकलने लगे. दिल्ली, मुंबई, सूरत, पंजाब और हरियाणा के ईंट-भट्ठों, खेतों और फैक्ट्रियों में बिहार के युवा अपनी जवानी खपाने लगे.

इसकी सबसे दर्दनाक तस्वीर तब सामने आई जब 2020 में कोविड-19 का लॉकडाउन लगा. अचानक, काम बंद हो गए और लगभग 32 लाख प्रवासी मज़दूर अपने घरों की ओर लौटने लगे. ट्रेनों, बसों और पैदल चलते हुए उन युवाओं को देखकर यह दर्दनाक सच्चाई सामने आ गई कि बिहार की आधी से ज़्यादा जवानी तो अपने घर से दूर, परदेस में मजदूरी कर रही है.

साल 2021 में की गई एक स्टडी के अनुसार, बिहार से हर साल करीब 20 लाख लोग रोज़गार के लिए पलायन करते हैं. 2023 में बिहार की बेरोजगारी दर 14.2% थी, जो राष्ट्रीय औसत (7.9%) से लगभग दोगुनी थी. बिहार के गांवों में अब सिर्फ बच्चे और बूढ़े बचे हैं. जवानी दिल्ली-मुंबई में मजदूरी कर रही है. यह एक मार्मिक सच्चाई है, जिसने बिहार के गांवों को खाली कर दिया है.

आखिर यह पलायन इतना बढ़ा क्यों?

उद्योगों की कमी: झारखंड के अलग होने और पुरानी ‘फ्रेट पॉलिसी’ ने बिहार में कारखाने लगने ही नहीं दिए.

शिक्षा का अभाव: बिहार के स्कूलों और कॉलेजों में बुनियादी सुविधाएं नहीं थीं. पढ़ाई की गुणवत्ता इतनी खराब थी कि 2000 के दशक में बिहार में सिर्फ 2% युवा ही स्नातक थे. अच्छी शिक्षा न मिलने से उन्हें बेहतर नौकरियों के अवसर नहीं मिले.

जंगलराज में असुरक्षा: अपराध और बाहुबलियों के डर से कई परिवार अपने बच्चों को सुरक्षित भविष्य के लिए बाहर भेजने पर मजबूर हुए.

केंद्र और राज्य की अधूरी कोशिशें

जंगलराज के बाद, 2005 से नीतीश कुमार के शासन में बिहार में कुछ बदलाव तो ज़रूर आए. कानून-व्यवस्था में सुधार हुआ, सड़कें बनीं और बिजली की स्थिति में भी ज़बरदस्त सुधार हुआ. जहां 2005 से पहले बिहार में केवल 4-6 घंटे बिजली आती थी, वहीं 2023 तक यह बढ़कर 20 घंटे तक पहुंच गई. लेकिन इसके बावजूद, आर्थिक विकास की रफ्तार धीमी ही रही.

केंद्र सरकार ने बिहार को ‘विशेष राज्य का दर्जा’ देने से लगातार इनकार किया, जिससे विकास योजनाओं के लिए पर्याप्त फंड नहीं मिल पाया. नीतीश कुमार ने अपने शासन में ‘सुशासन’ और ’10 लाख नौकरी’ जैसे वादे तो किए, लेकिन ज़मीनी हकीकत इन दावों से कोसों दूर रही. सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म X पर @BiharYouth ने एक पोस्ट लिखा, “नीतीश ने सड़कें बनाईं, लेकिन कारखाने नहीं. बिहार के युवा अब भी पलायन कर रहे हैं.”

क्या फिर से उठ खड़ा होगा बिहार ?

बिहार का भविष्य आज भी एक बड़े सवाल की तरह हमारे सामने है. 2025 का विधानसभा चुनाव एक नया मोड़ ला सकता है. नीतीश कुमार की ‘सुशासन’ की विरासत और तेजस्वी यादव के ‘खटाखट नौकरी’ के वादों के बीच, बिहार का युवा अब विकास, शिक्षा और रोज़गार को सबसे ऊपर रख रहा है.

आज बिहार में प्रशांत किशोर की ‘जन सुराज’ जैसी नई पार्टियां बाहुबलियों और पारंपरिक राजनीति के दबदबे को चुनौती दे रही हैं. युवा अब नेताओं से सिर्फ वादे नहीं, बल्कि काम देखना चाहते हैं.

2020 के चुनाव में बिहार का मतदाता टर्नआउट 57.05% था, जिसमें 59.7% महिलाएं थीं. यह दिखाता है कि महिलाएं भी अब बदलाव के लिए आवाज़ उठा रही हैं. नीतीश सरकार की ‘मुख्यमंत्री प्रतिज्ञा योजना’ (2024), जिसके तहत 12वीं और ग्रेजुएट छात्रों को इंटर्नशिप के लिए 4,000-6,000 रुपये देने का वादा एक छोटा कदम है, लेकिन यह दिखाता है कि युवाओं की आकांक्षाएं अब राजनीति के केंद्र में आ रही हैं. बिहार का भविष्य युवाओं के हाथ में है. अगर सही नीतियां बनीं, तो बिहार फिर मगध बन सकता है.

दर्द से उम्मीद तक का सफर

बिहार की कहानी सिर्फ एक राज्य की कहानी नहीं, बल्कि दर्द और उम्मीद के एक लंबे सफर की दास्तान है. मगध की सदियों पुरानी समृद्धि से लेकर जंगलराज की भयावहता और पलायन के अथाह दर्द तक, बिहार ने बहुत कुछ झेला है. सड़कें बेहतर हुई हैं, बिजली हर घर तक पहुंच रही है और स्कूलों की संख्या बढ़ी है, लेकिन पलायन और बेरोज़गारी आज भी बिहार का सबसे बड़ा दर्द है.

2025 का चुनाव बिहार के लिए एक मौका है. क्या बिहार के युवा, अपनी नई सोच और अपनी नई उम्मीदों के साथ अपने राज्य को फिर से उसकी खोई हुई शान दिला पाएंगे? क्या ‘बीमारू राज्य’ फिर से असल बिहार बन पाएगा.

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