सुप्रीम कोर्ट या राष्ट्रपति… संविधान की ‘जंग’ में कौन है सुपरपावर?
सुप्रीम कोर्ट
Supreme Court: कल्पना करिए, भारत एक बड़ा घर है. इस घर में राष्ट्रपति वो बड़े बुजुर्ग हैं जो घर की इज्जत बढ़ाते हैं, लेकिन ज्यादातर फैसले घरवालों (मंत्रिमंडल) की सलाह से लेते हैं. दूसरी तरफ सुप्रीम कोर्ट वो सख्त टीचर है, जो ये चेक करता है कि घर का कोई भी नियम (संविधान) तो नहीं टूट रहा. बात समझ में नहीं आई? कोई नहीं, आइये सबकुछ विस्तार से बताते हैं.
दरअसल, हाल ही में तमिलनाडु में ऐसा हुआ कि राज्यपाल ने कुछ बिल्स (कानून के ड्राफ्ट) को या तो लटकाए रखा या राष्ट्रपति के पास भेज दिया. तमिलनाडु सरकार भड़क गई और सुप्रीम कोर्ट में शिकायत करने पहुंची. कोर्ट ने नाराजगी जताते हुए कहा, “ऐसा नहीं चलेगा. राष्ट्रपति और राज्यपाल को बिल्स पर जल्दी फैसला लेना होगा. यानी किसी भी हाल में 3 महीने में राष्ट्रपति और 1 महीने में राज्यपाल को बिल पर फैसला लेना ही होगा. ” बस, यहीं हंगामा हो गया.
उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने कहा, “सुप्रीम कोर्ट राष्ट्रपति को ऑर्डर कैसे दे सकता है?” केंद्र सरकार भी तुनक गई और बोली, “ये तो हमारी ताकत पर डाका है.” तो आखिर सच्चाई क्या है? कौन है ज्यादा पावरफुल? आइये इसे विस्तार से जानते हैं.
सलाह के बंधन में बंधे होते हैं राष्ट्रपति!
राष्ट्रपति भारत के “फर्स्ट सिटिजन” हैं, जैसे घर के सबसे बड़े दादाजी. उनका रोल बड़ा शानदार है, लेकिन ताकत? वो थोड़ी सीमित है. संविधान (अनुच्छेद 74) कहता है कि राष्ट्रपति को ज्यादातर मामलों में मंत्रिमंडल (प्रधानमंत्री और उनकी टीम) की सलाह माननी पड़ती है.
राष्ट्रपति क्या-क्या कर सकते हैं?
कानून पर साइन करना: संसद कोई बिल पास करती है, तो राष्ट्रपति उस पर साइन करके उसे कानून बनाते हैं. लेकिन अगर बिल पसंद न आए, तो वे उसे वापस भेज सकते हैं.
आपातकाल लगाना: अगर देश में खतरा हो, तो मंत्रिमंडल की सलाह पर आपातकाल लगा सकते हैं.
कुछ खास फैसले: जैसे राज्यपालों की नियुक्ति, सुप्रीम कोर्ट के जजों की नियुक्ति, या कुछ बिल्स को रोकना. लेकिन ये सब संविधान के नियमों में बंधा है.
क्षमादान: किसी अपराधी की सजा माफ कर सकते हैं.
राष्ट्रपति की ताकत “प्रतीकात्मक” ज्यादा है. वे मंत्रिमंडल की सलाह से बंधे हैं. अगर वे सलाह के खिलाफ कुछ करें, तो सुप्रीम कोर्ट कह सकता है, “ये गलत है.” यानी राष्ट्रपति का रोल सम्मानजनक है, लेकिन “सुपरपावर” जैसी ताकत नहीं.
संविधान का ‘सुपरहीरो’ सुप्रीम कोर्ट!
सुप्रीम कोर्ट ये सुनिश्चित करता है कि कोई भी, चाहे राष्ट्रपति हो, सरकार हो या संसद, संविधान की लाइन क्रॉस न करे. ये भारत का “अंतिम बॉस” है जब बात कानून और नियम की आती है.
सुप्रीम कोर्ट की शक्ति?
संविधान का रक्षक: अगर कोई कानून, फैसला, या कदम संविधान के खिलाफ हो, तो सुप्रीम कोर्ट उसे रद्द कर सकता है (अनुच्छेद 13).
समीक्षा की ताकत: राष्ट्रपति, सरकार, या संसद के फैसलों की जांच कर सकता है. मिसाल के तौर पर, अगर राष्ट्रपति कोई बिल रोकते हैं और वो संविधान के खिलाफ है, तो कोर्ट इसे रोक सकता है.
पूर्ण न्याय की शक्ति (अनुच्छेद 142): कोर्ट ऐसे ऑर्डर दे सकता है, जो “न्याय” के लिए जरूरी हों, भले ही वो नियमों में साफ न लिखा हो. ये ताकत इतनी बड़ी है कि उपराष्ट्रपति ने इसे ‘परमाणु मिसाइल’ तक कह डाला!
फैसले बाध्यकारी: कोर्ट का फैसला सबके लिए मानना जरूरी है—राष्ट्रपति, सरकार, आम लोग, कोई नहीं बच सकता.
जनहित याचिका (PIL): कोई भी नागरिक सीधे कोर्ट जा सकता है अगर उसे लगता है कि संविधान खतरे में है.
क्या सुप्रीम कोर्ट राष्ट्रपति को ऑर्डर दे सकता है?
अब सबसे जरूरी सवाल कि क्या सुप्रीम कोर्ट राष्ट्रपति को ऑर्डर दे सकता है? हां, लेकिन सीधे-सीधे नहीं. सुप्रीम कोर्ट राष्ट्रपति को “ये करो, वो करो” नहीं कह सकता, क्योंकि राष्ट्रपति का पद संवैधानिक और सम्मानजनक है. लेकिन अगर राष्ट्रपति का कोई कदम (जैसे बिल रोकना) संविधान के खिलाफ हो, तो कोर्ट उसकी समीक्षा कर सकता है और उसे असंवैधानिक ठहरा सकता है. तमिलनाडु केस में कोर्ट ने यही किया. राष्ट्रपति और राज्यपाल को समयसीमा दी ताकि संविधान की प्रक्रिया का पालन हो.
क्यों मचा बवाल?
तमिलनाडु केस में सुप्रीम कोर्ट ने राष्ट्रपति और राज्यपाल को समयसीमा दी, जो कुछ लोगों को ‘अतिक्रमण’ लगा. उपराष्ट्रपति का कहना है कि कोर्ट ने अपनी हद पार की क्योंकि राष्ट्रपति का पद संवैधानिक है, और उनकी शक्तियां “विवेकाधीन” हो सकती हैं. अनुच्छेद 142 की ताकत को “जरूरत से ज्यादा” इस्तेमाल किया जा रहा है.
लेकिन दूसरा पक्ष कहता है कि कोर्ट का काम ही संविधान की रक्षा करना है. अगर राष्ट्रपति या राज्यपाल बिल्स को बेवजह लटकाते हैं, तो ये लोकतंत्र के खिलाफ है.
तो कौन है ज्यादा पावरफुल?
राष्ट्रपति: सम्मान और प्रतीक का रोल है. उनकी ताकत मंत्रिमंडल की सलाह और संविधान से बंधी है. वे “शो-पीस” नहीं, लेकिन सुपरमैन भी नहीं.
सुप्रीम कोर्ट: ताकत के मामले में बाजी मार लेता है, क्योंकि ये संविधान का “गार्जियन” है. ये किसी भी गलत फैसले को पलट सकता है, चाहे वो राष्ट्रपति का हो या सरकार का. लेकिन कोर्ट की ताकत सिर्फ “न्याय” तक सीमित है—ये देश नहीं चलाता, सिर्फ नियम चेक करता है.
इसे ऐसे समझिए, भारत का संविधान ऐसा बना है कि कोई भी संस्था “सुपर बॉस” न बने. राष्ट्रपति, सरकार, संसद, और सुप्रीम कोर्ट—सबके पास अपनी-अपनी ताकत और सीमाएं हैं. तमिलनाडु केस में सुप्रीम कोर्ट ने संविधान की रक्षा के लिए कदम उठाया, लेकिन कुछ लोग इसे ‘ज्यादा दखल’ मान रहे हैं. सच ये है कि कोर्ट और राष्ट्रपति में ‘पावर की जंग’ नहीं, बल्कि संतुलन की जरूरत है.